आजाद से अबुल कलाम का सफर
आजाद से अबुल कलाम का सफर
मौलाना आजाद और बिहार
1912 में बंगाल से अलग होकर बिहार एक नया प्रांत बन चुका था। बंगाल से निष्कासन के समय पंजाब, बंबई और दिल्ली की सरकारों ने भी अपने क्षेत्रों में आजाद का प्रवेश वर्जित कर दिया था। अतः आजाद ने राँची में निवास ग्रहण किया। अब यह नगर झारखण्ड राज्य की राजधानी है, मगर तब बिहार का एक प्रमुख नगर था। रांची में आजाद का घर मोहराबादी पहाड़ियों के क्षेत्र में था। गुरुदेव रबीन्द्रनाथ ठाकुर ने भी यहाँ काफी समय बिताया था। राँची निवास के समय आजाद ने धार्मिक और सामाजिक कार्यों पर अधिक ध्यान दिया। उन्होंने यहीं अपनी विश्वविख्यात रचना “तर्जुमानुल कुरआन” का अधिकतर भाग लिखा। इस संबंध में वे एक विशेष घटना का उल्लेख अपने संस्मरण में करते हैं। वे बताते हैं कि एक दिन एक पठान उनसे मिलने आया।
उसने बताया कि वह बड़ी कठिनाइयों से पेशावर (तब भारत के पश्चिमोत्तर सीमांत का एक नगर) से यात्रा कर उनके पास आया था, ताकि उनसे मिलकर धर्म के बारे में अपनी जिज्ञासा को शांत कर सके। कुछ ही दिनों में वह उसी तरह अचानक वापस लौट गया, जैसे वह आया था। आजाद को बराबर यह दुःख रहा कि वह उसकी वापसी की यात्रा के लिए कोई सहायता नहीं कर सके। मगर उस अनपढ़ पठान की लगन उन्हें सदा याद आती रही। ___ आजाद ने राँची के मुसलमानों के अनरोध पर मस्जिद में धार्मिक प्रवचन देना आरंभ किया। सप्ताह में एक बार वे प्रवचन देते और बड़ी संख्या में लोग उन्हें सुनने आते। यहीं उन्होंने एक मदरसा भी स्थापित किया, जो आज भी काम कर रहा है। इसी काल में उन्हें लोग सम्मानपूर्वक “मौलाना” कहने लगे। मौलाना का शाब्दिक अर्थ है “मेरे स्वामी धर्माचार्यों के लिए यह शब्द सम्मान व्यक्त करने के लिए प्रयोग किया जाता है। 1920 में लाहौर में 1,000 मुस्लिम धर्माचार्यों ने एक सम्मेलन में सर्वसम्मति से मौलाना आजाद को “इमामुल हिन्द” की उपाधि दी। इसका तात्पर्य था कि उस समय के अविभाजित भारत में उन्हें सबसे बड़ा धर्मनेता माना गया था। मगर आजाद ने बड़ी विनम्रता से इंकार कर दिया। फिर भी अनौपचारिक ढंग से आज भी उन्हें इमामुल हिन्द’ कहा जाता है
रामगढ़ (वर्तमान झारखण्ड में) का भी मौलाना आजाद के जीवन में बड़ा महत्व है। इसी जगह 1940 में वे कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गए और लगभग 6 वर्षों तक इस दायित्व को निभाते रहे। यहीं कांग्रेस के वार्षिक अधिवेशन में उन्होंने अपना ऐतिहासिक अध्यक्षीय भाषण दिया। इसमें उन्होंने बड़े तार्किक ढंग से यह सिद्ध किया कि मुसलमानों की ‘इस्लाम धर्म में निष्ठा और भारतीय राष्ट्रवाद के प्रति उनके समर्थन में कोई विरोधाभास नहीं है। उनकी बातों का सार थाः
“मैं मुसलमान हूँ और गर्व के साथ आभास करता हूँ कि मैं मुसलमान हूँ। मैं इतने ही गर्व के साथ आभास करता हूँ कि मैं हिन्दुस्तानी हूँ। मैं हिन्दुस्तान की एक अविभाज्य, एकीकृत राष्ट्रीयता का अनिवार्य अंश हूँ।” (खुत्बाते आजाद से उद्धृत) ___1947 में वे अंतिम बार बिहार आए, जब उन्होंने पटना विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह को सम्बोधित किया था। इस प्रकार स्वतंत्रता की लड़ाई में भी और स्वतंत्रता के बाद भी मौलाना आजाद का बिहार से संबंध रहा।
मौलाना आज़ाद की पत्रकारिता
उर्दू पत्रकारिता के इतिहास में मौलाना अबुल कलाम आज़ाद का नाम सुनहरे अक्षरों में लिखा जायेगा। वैसे तो उर्दू पत्रकारिता का आरंभ 19वीं शताब्दी के मध्य में ही हो गया था, मगर आजाद ने इसे एक नया ओजस्वी रूप प्रदान किया।
आज़ाद की पत्रकारिता के दो आयाम रहे-सामाजिक और राजनीतिक । उनके माध्यम भी दो थे: पत्रिकाएं और समाचार-पत्र। उन्होंने पहली मासिक पत्रिका “नैरंगे आलम” 1899 में कलकत्ता से प्रकाशित की। 1901 में पहला साप्ताहिक समाचार-पत्र ‘अल-इस्लाह प्रकाशित किया। फिर कुछ अन्य पत्रिकाओं के भी वे संपादक अथवा सह-संपादक रहे। इन आरंभिक अनुभवों के बाद उन्होंने पहली महत्वपूर्ण पत्रिका “लिसान उस्-सिद्क’ (सत्य की भाषा) का प्रकाशन 1903 में आरंभ किया। इस पत्रिका के दस अंक प्रकाशित हुए। इनमें जो लेख मिलते हैं, वे सामाजिक सुधारों के प्रस्तावों के रूप में थे। इनका विशेष संबंध उस समय के मुस्लिम समाज की परिस्थितियों से था। अंग्रेजी शिक्षा का समर्थन, महिलाओं में नयी चेतना का संचार, अंधविश्वासों का खंडन, व्यर्थ और मँहगे रीति-रिवाजों, शादी-विवाह और अन्य अवसरों पर फिजूलखर्ची या अपव्यय का विरोध आदि की इन लेखों में चर्चा की गई थी। उस समय सर सैय्यद भी मुस्लिम समाज में सुधार लाने और पाश्चात्य शिक्षा एवं विज्ञान के प्रसार में सक्रिय थे। लेकिन मौलाना आजाद इसलिये अलग स्थान रखते हैं, क्योंकि उनका मानना था कि मुसलमान राष्ट्रीय धारा से अलग होकर प्रगति कर ही नहीं सकते। तुम पढ़ चुके हो कि पत्रकार के रूप में आजाद का महत्वपूर्ण योगदान “अल-हिलाल” और “अल-बिलाग” नामक समाचार-पत्र थे। पहले का संबंध उनके राजनीतिक विचारों और दूसरे का उनके सामाजिक संदेश से था। ये दोनों समाचार-पत्र अधिक समय तक प्रकाशित नहीं हो सके, मगर इनका प्रभाव निर्णायक रहा। राष्ट्रीय आंदोलन के प्रचार-प्रसार के साथ इन समाचार-पत्रों ने इस्लामी जगत की समस्याओं की ओर भी ध्यान केन्द्रित किया और यह स्पष्ट किया कि ब्रिटिश साम्राज्यवाद मुसलमानों के लिये भी उतना ही हानिकारक है, जितना अन्य भारतीयों के लिये। इस प्रकार, वे सर सैय्यद अहमद ख़ान के विचारों से असहमत थे। सर सैय्यद का मानना था कि मुसलमानों को शिक्षा और सामाजिक प्रगति की ओर ध्यान देना चाहिए और राजनीति से अलग रहना चाहिए। मौलाना आजाद ने इसके विपरीत मुसलमानों को राष्ट्रीय आंदोलन में सक्रिय होने का संदेश दिया। 1920-21 में आरंभ होने वाले खिलाफत आंदोलन के माध्यम से उन्होंने मुसलमानों को राष्ट्रीय आंदोलन की मुख्य धारा से जोड़ने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। फलस्वरूप खिलाफत आंदोलन और असहयोग
आंदोलन साथ-साथ आगे बढ़े। मौलाना आज़ाद की पत्रकारिता के विकास में उनकी विदेश यात्रा का भी योगदान रहा। वर्ष 1908-09 में जब उन्होंने अरब देशों का भ्रमण किया, तो उन्हें ऑटोमन साम्राज्य और एवं इस्लामी जगत की परिस्थितियों के बारे में जानने का मौका मिला। ‘युवा तुर्क’ नेताओं के जनतांत्रिक विचारों से भी वे प्रभावित हुए थे। ‘अल-हिलाल’ में प्रकाशित उनके सम्पादकीय और मुख्य आलेख इन नवीन विचारों की सशक्त अभिव्यक्ति हैं।
साहित्यकार मोलाना आजाद
अबुल कलाम आज़ाद अपने समय के बड़े साहित्यकार भी थे। उन्होंने कविताएं लिखीं, अनेक लेख लिखे, धार्मिक ग्रंथ लिखे, स्वतंत्रता आदोलन का इतिहास लिखा और अनेक लघु-पुस्तिकाओं की भी रचना की। उनकी रचनाओं की कुल संख्या 30 से भी अधिक है। इतनी बड़ी संख्या में और इतने विविध प्रकार की रचनाओं के रचयिता मौलाना आजाद की विलक्षण प्रतिभा सर्वविदित है।
मौलाना आजाद ने युवावस्था में ही अपने ज्ञान और लेखन-शैली का परिचय अपने लेखों में दे दिया था। उनसे पहली बार मिलने वाला व्यक्ति यह विश्वास ही नहीं कर पाता था कि इस युवक में ऐसी विलक्षण प्रतिभा है। उस समय के सभी प्रमुख साहित्यकारों ने उनकी प्रशंसा की है।
अपने लेखों में, जो उस समय की प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए, उन्होंने राष्ट्रीय चेतना, सामाजिक समस्याओं, विज्ञान-संबंधी विषयों, धार्मिक प्रश्नों और साहित्य के विभिन्न आयामों पर चर्चा की है।
मौलाना आजाद ने विज्ञान से संबंधित विषयों पर अनेक लेख लिखे। भौतिकी, रसायन और औषधि-विज्ञान में उनकी विशेष रुचि थी। उन्होंने अरब वैज्ञानिकों के सिद्धांतों की आधुनिक विज्ञान के संदर्भ में व्याख्या की। नवीन आविष्कारों और अन्वेषणों पर भी उन्होंने विस्तार से लेख लिखे। इनमें सबसे चर्चित लेख X-Ray के विषय पर था। बेकन और न्यूटन के सिद्धांतों से उन्होंने उर्दू भाषा के पाठकों को परिचित कराया। विज्ञान के व्यावहारिक उपयोग और प्रौद्योगिकी के महत्व को वह अच्छी तरह समझते थे और इसके लिये चेतना जगाने के लिये आरंभ से ही प्रयास करते रहे थे। पत्र-लेखन में भी आज़ाद को प्रसिद्धि और लोकप्रियता प्राप्त थी। उनके पत्रों का सबसे उत्कृष्ट उदाहरण “गुबार-ए-ख़ातिर” में मिलता है। उनके भाषणों के भी कई संकलन प्रकाशित हुए हैं। इनमें उनके व्यक्तित्व और विचारों की झलक मिलती है। उनकी बहुआयामी प्रतिभा भी इनमें प्रकट होती है। ऐसी सभी रचनाओं में सबसे महत्वपूर्ण “तर्जुमानुल कुरआन” है। मुसलमानों की पवित्र पुस्तक “कुरआन” पर यह एक वृहत टीका है, जो चार खण्डों में प्रकाशित हुई है। उर्दू भाषा में कुरआन पर लिखी गई यह सबसे विस्तृत टीका है। इसमें कुरआन के उपदेशों की आधुनिक और तार्किक प्रसंग में व्याख्या की गयी है। एक धर्माचार्य की विद्वता और आधुनिक विचारों में विश्वास का यह अत्यंत सुंदर और संतुलित सम्मिश्रण है। उनकी दूसरी महत्त्पूर्ण रचना India wins Freedom भारत के स्वतंत्रता संग्राम के निर्णायक चरण का इतिहास प्रस्तुत करती है। उस समय मौलाना आज़ाद कांग्रेस के अध्यक्ष थे और सत्ता हस्तांतरण से संबंधित बैठकों और वार्ताओं में शामिल रहे थे। यह रचना एक प्रत्यक्षदर्शी के विचारों और अनुभवों का वर्णन करती है।
“आजाद की कहानी, आज़ाद की जुबानी” उनकी आत्म-कथा है। इससे आजाद की जीवनी, शिक्षा और समकालीन घटनाओं को समझने में सुविधा होती है। यह चार रचनाएँ उनकी सर्वश्रेष्ठ सहित्यिक कृतियाँ हैं।
खिलाफत आंदोलन
1920 में आरंभी होने वाला खिलाफत आंदोलन मौलाना आज़ाद के जीवन का एक महत्वपर्ण मोड था। इसी के साथ उनका राजनीतिक गतिविधियों में निर्णायक योगदान आरंभ होता है।
प्रथम विश्व युद्ध (1914-18) समाप्त होने पर जब पेरिस में शांति-सम्मेलन (1919) हुआ, तो ऑटोमन सुल्तान, जो ख़लीफ़ा भी था, के साथ अन्यायपूर्ण और अपमानजनक व्यवहार किया गया था। इससे भारतीय मुसलमानों में आक्रोश था। खलीफा के प्रति समर्थन जुटाने और उसके साथ उचित व्यवहार की माँग करने के लिये खिलाफत आंदोलन भारत में आरंभ हुआ। इस आंदोलन का नेतृत्व मौलाना मोहम्मद अली और उनके भाई मौलाना शौकत अली कर रहे थे। मौलाना आज़ाद भी इसके एक प्रमुख युवा नेता थे। खिलाफ़त आंदोलन का देश-भर में प्रभाव पड़ा। बिहार भी इस आंदोलन का महत्वपूर्ण केन्द्र था। जन-सभाओं और जुलूसों के माध्यम से खलीफा के साथ अभद्र व्यवहार पर विरोध जताया गया। गांधीजी ने भी इस आंदोलन को नैतिक समर्थन दिया। वर्ष 1920 में कानपुर में आयोजित खिलाफत अधिवेशन में गांधीजी भी शामिल हए।
खिलाफत आंदोलन के माध्यम से हिन्दू-मुस्लिम एकता को बल मिला। वर्ष 1857 के आंदोलन के बाद पहली बार हिन्दुओं और मुसलमानों ने एकजुट होकर अंग्रेज़ों का विरोध किया था। गांधीजी और मौलाना आजाद, दोनों का ही पूरा विश्वास था कि हिन्दू-मुस्लिम एकता ही अंग्रेजों के खिलाफ़ देश की आजादी की लड़ाई को मजबूत बना सकती है और अंग्रेजों की “फूट डालो और शासन करो” की नीति को विफल कर सकती है।
इसके बाद जब 1921 में गांधीजी ने असहयोग आंदोलन का आह्वान किया, तो आज़ाद इसमें पूरी तन्मयता से जुड़ गये। इसके साथ ही उनका अटूट संबंध गांधीजी के साथ बन गया।
अतः खिलाफत आंदोलन के महत्व का एक कारण यह भी है कि इसी के साथ आज़ाद गांधीजी के अनुयायी बने। ____यह एक संयोग था कि असहयोग एवं खिलाफत आंदोलन का अंत भी एक ही साथ हो गया। गांधीजी ने 1922 में असहयोग आंदोलन स्थगित किया। दूसरी ओर तुर्की में जब कमाल पाशा ने सत्ता ग्रहण की और धर्म-निरपेक्षता के सिद्धांत को अपनाया, तो स्वतः खलीफा का और ख़िलाफ़त आंदोलन का महत्त्व भी समाप्त हो गया। फिर भी इन दोनों आंदोलनों से हिन्दू-मुस्लिम एकता का आधार मजबूत बना।