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आजाद से अबुल कलाम का सफर | Part – 1

आजाद से अबुल कलाम का सफर

आजाद से अबुल कलाम का सफर

 

बालक मोहिउद्दीन

11 नवम्बर, 1888 ई० को मक्का (वर्तमान सउदी अरब के मुख्य धार्मिक नगर) में मौलाना खैरुद्दीन और बीबी आलिया के घर एक पुत्र का जन्म हुआ। उसका नाम रखा गया- “मोहिउद्दीन”। ___मौलाना खैरुद्दीन मूलतः दिल्ली के निवासी थे। मुगल साम्राज्य के पतन और दिल्ली की बिगड़ती हुई परिस्थितियों के कारण वहाँ से बड़ी संख्या में लोग जाकर दूसरे स्थानों में बसने लगे थे, जैसे लखनऊ, पटना, मुर्शिदाबाद आदि। मौलाना खैरुद्दीन ने भी 1855 में दिल्ली छोड़ने का फैसला किया। उन्होंने अरब देश जाकर मक्का में निवास ग्रहण किया। उस समय यह नगर ऑटोमन साम्राज्य के हिजाज़ प्रांत में स्थित था। वहाँ उनका परिवार लगभग 40 वर्षों तक रहा। वहीं उनका विवाह बीबी आलिया के साथ हुआ। मौलाना खैरुद्दीन प्रतिष्ठित धर्माचार्य थे जिनके शिष्य अरब देश से अफ्रीका और भारत तक फैले हुए थे। बीबी आलिया का भी जन्म धर्माचार्यों के परिवार में हुआ था। माता और पिता का

प्रभाव मोहिउद्दीन के व्यक्तित्व के विकास में निर्णायक रहा।

मोहिउद्दीन की तीन बहनें थीं और एक भाई। खदीजा, फातिमा और हनीफा तथा गुलाम यासीन । सभी उनसे उम्र में बड़े थे। इस परिवार में शिक्षा को बहुत महत्व दिया जाता था। सभी भाई-बहन शिक्षित थे। उर्दू साहित्य में सभी की रुचि थी और सभी ने काव्य रचना के भी प्रयास किए। गुलाम यासीन ज्यादा सफल रहे। उनका साहित्यिक उपनाम था “आह” | उनकी कविताओं का संग्रह प्रकाशित भी हुआ है। मोहिउद्दीन ने उर्दू के साथ अरबी और फ़ारसी में भी दक्षता प्राप्त की।

1887 में मौलाना खैरुद्दीन पहली बार भारत वापस आए, मगर फिर मक्का लौट गए। अंतत: 1897 में मौलाना खैरुद्दीन सपरिवार भारत लौट आए और कलकत्ता में स्थाई तौर पर बस गए। तब मोहिउद्दीन की उम्र 10 साल से भी कम थी। उनका किशोर-जीवन कलकत्ता में बीता। आगे चलकर इसी नगर से उनके साहित्यिक जीवन का आरंभ हुआ, पत्रकारिता शुरू हुई और राष्ट्रीय आंदोलन में उनकी भागीदारी के कारण पहली बार जेल की सज़ा भी हुई।

अद्भुत प्रतिभा

मोहिउद्दीन की प्रतिभा अनोखी थी। अरबी, फारसी, तुर्की, उर्दू भाषा और साहित्य का ज्ञान उसने बचपन में ही हासिल कर लिया था। इसी के साथ इस्लामी विद्या (कुरआन और हदीस का ज्ञान) में भी वह बालक दक्षता प्राप्त कर चुका था। मात्र 15 वर्ष की आयु में ही उसने दसैं निज़ामी (इस्लामी विद्या का मानक पाठ्य-क्रम जिसमें दर्शन, साहित्य, इस्लामी विधान, गणित, इतिहास जैसे विषय शामिल थे) पूरा कर लिया था। इसके पूर्व ही उसने कविता और लेख लिखना आरंभ कर दिया था, जो मानक पत्रिकाओं में प्रकाशित भी हुए। अनौपचारिक ढंग से उसने पढ़ाने का काम भी आरंभ कर दिया था। उसका अपना एक पुस्तकालय था, जहाँ अनेक विषयों की ढेर सारी किताबें थीं। और वह नियमित ढंग से इन्हें पढ़ा करता था। उसने यह शिक्षा किसी मदरसे या स्कूल में नहीं, अपने पिता और उनके मित्रों से पाई थी। अपने निजी अध्ययन से उसने अपनी क्षमता को और विकसित किया। कुछ वर्षों बाद उसने अंग्रेजी और फ्रांसीसी भाषा भी सीखी। __बचपन से ही मोहिउद्दीन को खेल-कूद और मनोरंजन से ज्यादा रुचि किताबें पढ़ने में थी। उसे तैराकी में रुचि थी और उसने तैरना सीखा भी। हुगली नदी में वह कभी-कभी तैरने भी जाता था, मगर फिर उसका ध्यान पुस्तकों की ओर ही हो गया। कभी वह सैर करने भी निकलता, तो उसके पास किताबें होती और वह किसी पेड़ की छाया में बैठकर उन्हें पढ़ने लगता। __उसके मनोरंजन का ढंग भी अनूठा था। 8 वर्ष की उम्र में ही वह अपनी बहनों को सामने खड़ा कर के भाषण दिया करता था। कोई न मिले, तो बक्सों

और डब्बों को ही सामने सजाकर भाषण दे डालता। तब किसी ने भी यह नहीं सोचा था कि यही बच्चा एक दिन ऐसा अद्भुत वक्ता बनेगा, जो अपनी जादूभरी वाणी से हजारों की भीड़ को मंत्र-मुग्ध कर देगा।

दिनों-दिन इस बालक की प्रतिभा निखरती गई, बढ़ती गई और उसमें नये आयाम जुड़ते गए। पहले एक कवि, फिर लेखक, पत्रकार, साहित्यकार, शिक्षाविद्, दार्शनिक, राजनीतिज्ञ और धर्माचार्य के रूप में उसे बौद्धिक पहचान मिली। राष्ट्रीय चेतना के प्रतीक, हिन्दू-मुस्लिम सद्भाव के पुरोधा और महान स्वतंत्रता सेनानी की पहचान सबसे महत्वपूर्ण रही। स्वतंत्र भारत में शिक्षा, विज्ञान, कला और संस्कृति के प्रश्रयदाता के रूप में उसकी एक अलग पहचान बनी।

मोहिउद्दीन बन गया “आजाद”

मोहिउद्दीन ने 10 से 12 वर्ष की आयु में उर्दू भाषा में कई कविताएँ लिखीं जो उस समय की प्रमुख साहित्यिक पत्रिकाओं में छपी। इन कविताओं में उसका साहित्यिक उपनाम था “आजाद”। इनमें कुछ काव्य रचनाओं का संकलन पटना स्थित खुदाबख्श लाइब्रेरी ने कुछ समय पहले प्रकाशित किया है।

10-12 साल का यह बालक तब अपने दोस्तों से कहा करता था कि उसने “आज़ाद” उपनाम इसलिए अपनाया, क्योंकि उसने मन से कभी अंग्रेजों की गुलामी स्वीकार नहीं की। उसे यह विश्वास था कि जब अंग्रेजों का शासन भारत में समाप्त हो जाएगा, तो वह गर्व से कह सकेगा कि उसने तो बहुत पहले ही अपने “आजाद होने की घोषणा कर दी थी। आज़ाद का यह विश्वास देश की आजादी की लड़ाई में उसका सबसे बड़ा सहारा था, सबसे बड़ी शक्ति थी। लगभग 40 साल बाद आजाद का वह सपना साकार हुआ और भारत में अंग्रेजों के झंडे यूनियन जैक की जगह स्वतंत्र भारत का तिरंगा लहराया। __आज़ाद शब्द की सार्थकता का एक और कारण भी था, जो समय बीतने के साथ स्पष्ट हुआ। मोहिउद्दीन वैचारिक मामलों में भी आजाद रहा। वह पुरातनवादी विचारों, अंधविश्वासों, रूढ़िवादी दृष्टिकोण और संकीर्णता से मुक्त था। एक नयी चेतना उसके मन में धीरे-धीरे जगी थी जिसमें भारतीय, इस्लामी और पाश्चात्य दर्शन की उदार भावनाओं का समावेश था। उसने तर्क की प्रधानता को सतत् स्वीकार किया और धार्मिक विचारों को तर्क की कसौटी पर परखने के बाद ही उन्हें अपनाया।

युवा ‘आज़ाद’ के मन में देश की आजादी को प्राप्त करने की इच्छा बहुत प्रबल थी। 1905 में बंगाल के विभाजन से वह दुःखी था। इसका विरोध उसको राजनीतिक जीवन में सक्रिय बनाने में सहायक रहा। वह बंगाल के क्रांतिकारी आंदोलन से जुड़ा। श्री अरबिंदो घोष और युवा क्रांतिकारी श्याम सुंदर चक्रवर्ती से उसका कुछ समय तक जुड़ाव रहा, परंतु गांधीजी के संपर्क में आने के बाद ही आज़ाद की राजनीतिक चेतना का वास्तविक विकास आरंभ हुआ। गांधीजी के अनुयायी बनकर आज़ाद ने शांतिपूर्ण सत्याग्रह और अहिंसात्मक प्रतिरोध का रास्ता अपनाया। इसी रास्ते पर चलकर देश को स्वतंत्रता प्राप्त हुई।

“आजाद” से “अबुल कलाम” का सफर

आजाद की आरंभिक रचनाओं में लेख भी थे और कविताएं भी, मगर उनका मन इससे संतुष्ट नहीं था। उन्हें लगा कि कविता के माध्यम से वे पारंपरिक विचारों को ही व्यक्त कर पा रहे हैं। नये विचारों को प्रचारित करने और समाज में हो रहे परिवर्तनों पर लोगों का ध्यान आकर्षित करने के लिए गद्य रचना उन्हें अधिक उपयोगी और प्रभावशाली लगी। फिर उन्होंने कई महत्वपूर्ण लेख लिखे। कविता में अब उनकी रुचि कम रह गयी। ____इस आरंभिक चरण में उनकी सबसे महत्वपूर्ण कृति एक प्राक्-कथन (Preface) था, जो उन्होंने “तज्किरए सादिका” नामक पुस्तक के लिए लिखा। “तज्किरए सादिका” मौलवी अब्दुर रहीम ने लिखी थी। इसमें पटना के सादिकपुर परिवार का इतिहास भी था और लेखक के संस्मरण भी। सादिकपुर परिवार के सदस्यों ने 19 वीं शताब्दी के पूर्वार्ध में अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष, वहाबी आंदोलन, में सक्रिय भूमिका निभाई थी।

धर्म की वह कल्पना जगी, जिसमें मानववाद और आत्म-सुधार के गुणों का निर्णायक स्थान था। इसी के साथ, शोषण और उत्पीड़न का विरोध करने की प्रबल भावना भी थी। ___इसी पुस्तक के प्राक-कथन में, जिसका चित्र आलेख के आरम्भ में है, आज़ाद के नाम के साथ “अबुल कलाम’ शब्द का पहली बार उपयोग हुआ। फिर यह उनका स्थाई उपनाम बन गया। इस आलेख में उनका पूरा नाम था “मौलवी अबुल कलाम मोहिउद्दीन अहमद”। अबुल कलाम का शाब्दिक अर्थ होता है : “वाचस्पति’ अर्थात् एक अद्भुत वक्ता। आजाद के जीवन में उनकी प्रखर वाणी सदैव एक निर्णायक विशिष्टता रही। उनकी लेखनी भी उतनी ही सशक्त थी। 20वीं शताब्दी में भारत के मुसलमानों को अंग्रेजों के शासन का विरोध करने की प्रेरणा बहुत हद तक उन्हीं के भाषणों और लेखों से मिली।

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