स्व – रूप देखिए : विनोबा भावे
स्व – रूप देखिए : विनोबा भावे
विनोबा भावे : व्यक्ति और लेखन
विनोबा भावे का जन्म महाराष्ट्र राज्य के कुलावा जिले के गागोदा ग्राम में 11 सितंबर 1895 ईसवी में हुआ | महात्मा गांधी के आह्वान पर अपना अध्ययन छोड़कर स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े विनोबा ने फिर पीछे लौटकर अपनी शिक्षा और जीवन यापन के संबंध में सोचा ही नहीं | वे गांधी जी के परम हितैषी शिष्यों में सम्मिलित होकर आजीवन गांधीजी के सिद्धांतों और अपने मौलिक चिंतन का प्रयोग करते थे | उनकी माता आई ने उन्हें कहा था — बिनोवा संस्कृत पढ़ने में मुझे कठिनाई होती है गीता पूरी तरह समझ नहीं पाती तो बिनोवा ने कहा आई तेरे लिए गीता में ही लिखूंगा | इतना कहकर सेवाग्राम आश्रम में महात्मा गांधी से संस्कृत पढ़ने के लिए बनारस जाने की अनुमति मांगी तो गांधीजी ने कारण जानकर 1 वर्ष के लिए ही वाराणसी जाने की अनुमति दी | बिनोवा वैसे भी बहुभाषाविद थे, संस्कृत पढ़कर 1 वर्ष में लौटे और गांधी जी की सेवा में पहुंच गए | उन्होंने गीता का मराठी में अनुवाद किया है, वहीं पस्तर शिलाओ पर गीताई मंदिर में आज उपलब्ध है |
विनोबा भावे आध्यात्मिक चिंतक मौलिक सोच और कर्मठ व्यक्तित्व के धनी थे | उन्होंने महात्मा गांधी के आह्वान पर सत्याग्रह आंदोलन के आदर्शों को अपने अंत:कारण में उतारकर संकल्प के साथ गांधी के साथ उनके वैचारिक सारथी बन गए | वे 36 विश्व भाषाओं के ज्ञाता होकर भी हिंदी भाषा के प्रति गहरा प्रेम रखते थे और इसकी अभिव्यक्ति उनके चिंतन में भी मिलती है | उनके द्वारा हिंदी भाषा प्रयोग के संबंध में हिंदी साहित्य कोश में यह कहा भी गया है कि – रमते योगी की तरह जन-जन की वानि में हिंदी का साक्षात्कार करते हैं और स्वम् द्वारा अपने विचारों को संचालित करते हैं | उनकी भाषा में एक उन्मुक्त निलिप्तता है, जो कबीर की वाणी की याद दिलाती है उनकी वाणी में सरलता है जो हमको रामकृष्ण परमहंस और गांधी वचनामृत में मिलती है- वही सरलता वही गहनता वहीं पैठ वही अनुभूति |
ऐसे संत हैं जो सर्वोदय और भूदान जैसी गतिविधि के मौलिक चिंतन से संपन्न है | आधुनिक युग का कबीर दास कहा जा सकता है वह भी कबीर की भांति ही आखिन देखी कहते हैं | उनका अनुभव संसार व्यापक है लेकिन वे अपनी बात अत्यंत सरल धन इसे कहते हैं, तथा वे अपनी बात करने के क्रम में विचारों के संचार को अपेक्षाकृत अधिक महत्त्व देते हैं आवश्यकतानुसार उन्होंने विचारों की सुग्राह्यता के लिए दृष्टांत ही दिए हैं | उनके चिंतन में अध्यात्मिक स्पर्श है|
विनोबा भावे भी गांधीजी की भांति अपने विचार या चिंतन को प्रयोग के रूप में स्वयं अपनाते थे| भारतीय संस्कृति के मौलिक तत्व और तथ्यों की खोज उन्होंने अपनी पदयात्रा में की है तथा अपनी जीवन की प्रयोगशाला में अपने कथ्य का प्रयोग सिद्ध हो जाने पर ही समाज को दिया है | उनमें आश्चर्यजनक संकल्प शक्ति थी, परिणाम स्वरूप जो कुछ वे सर्वोदय या भूदान के लिए सोचते विचारते रहे वाह उनके जीवन का अनुभूत सत्य बनकर देश परदेश की भौगोलिक सीमाओं के पार जाकर भी प्रसारित हुआ |
विनोबा भावे ने अनेक कृतियों की रचना की है और अनेक सुप्रसिद्ध ग्रंथों का अनुवाद भी किया है विनोबा भावे की कुछ कृतियां हिंदी साहित्य के लिए अमर देन कहीं जाती है | उनकी कृतियों में गीता प्रवचन स्थितिप्रज्ञ दर्शन विनोबा के विचार, सर्वोदय विचार आत्मज्ञान और विज्ञान, भूदान गाथा सर्वोदय संदेश, भूदान यज्ञ, गांव गांव स्वराज्य , भगवान के दरबार में, गांव सुखी हम सुखी आदि प्रमुख है |
विनोबा भावे का निधन सन 1982 को हो गया | उनकी इच्छा के अनुसार गांधी जी के समाधि के पास ही उनका शबदाह किया गया है | और वहीं पर समाधि बना दी गई है | पास में ही विनोवा आश्रम है | यह स्थान सेवाग्राम ( वर्धा ) से नागपुर मार्ग पर स्थित है वास्तव में विनोबा भावे अपने विचारों से जन-जन में रम जाने वाले ऐसे रंमने वाले संत हैं | जिनके साहित्य में स्वान्दुभुत तत्वों का स्पष्ट बयान है जो न टेबल समाजसेवियों के लिए अपितु जन सामान्य के लिए प्रभावों के लिए प्रभावोत्पादक प्रेरक है |
स्व – रूप देखिए प्रवचन द्वारा बिनोवा भावे द्वारा समाजसेवियों को अपने अंतर दर्शन और आत्म चिंतन के लिए प्रेरित किया गया है | ज्ञान और कर्म की जो शिक्षा हम दूसरों को देना और उसने जो देखना चाहते हैं, उसे पहले अपने जीवन में उतारने की पूरी प्रक्रिया से गुजरना चाहिए | साधन बनकर ही कोई साधना का आदर्श उपस्थित कर सकता है |
बिनोवा सोदाहरण यह स्पष्ट करते हैं कि मानव की स्वभाविक प्रवृत्ति होती है कि वह सीधे सरल उपाय छोड़कर आसमान में बैठने जैसे बरी बरी कल्पनाएं क्या करता है | वह किसी गांठ हो अंदर से सुलझाने के स्थान पर बाहर से ही खींचने लग जाता है और उसका परिणाम यही होता है कि गांठ सुलझने के बदले इतनी पक्की उलझ जाती है कि फिर चाहने पर जितने प्रयास सुलझाने के लिए कीया जाए वे सफल नहीं होते | उदाहरण के रूप मैं वे कहते हैं कि किसी धनी व्यक्ति के पुत्र के पाँव घर से बाहर निकलते ही जब जलने लगे तब अपने पैरों में जूते पहनने के स्थान पर सारी पृथ्वी पर ही चेहरे से ढके जाने की युक्ति निकाली | यह स्थिति मानव मात्र के साथ है तभी तो किसी योजना को स्वयं पर लागू करने की बजाय वह संसार पर ही लागू करने की दिशा मैं अपने दिमाग लगाते हैं, जबकि आचरण ही प्रचार का सबसे बड़ा साधन है | अत: कोई भी बात संसार पर लागू करने से पहले स्वम पर लागू करनी चाहिए |
लेखक विनोबा भावे इस प्रवचन में स्व के ऊपर चरितार्थ करने की प्रक्रिया को ही सर्वाधिक उपादेय बताते हुए कहते हैं कि जब देबी सभा में पृथ्वी की प्रदक्षिणा की चर्चा आरंभ हुई तो पृथ्वी की प्रदक्षिणा पूरी करने के लिए निकले देवों में से एक देव को जब ब्रह्म वीणा के नाद में तन्मय नारद ने जोर-जोर से सांस लेते हुए अपने सामने से दौड़ते हुए आते देखा तब अपने आसपास ही चक्कर लगाकर विष्णु को नमस्कार कर वे अपने आसन पर बैठे | देवताओं के लौट आने पर विष्णु ने यह कहते हुए नारद को पहला स्थान दे दिया कि जो पिंड में शो ब्रह्मांड में ,सूरज के अनुसार पृथ्वी की प्रदक्षिणा नारद ने पूरी की है |
विनोबा इस पर आश्चर्य प्रकट करते हैं कि हम स्वयं को भूलाकर संसार को सुधारने के लिए बढ़ते हैं | परिणामत: विरोधाभास का उदाहरण है | प्राय : ऐसा देखा जाता है कि जब मौन का प्रचार करना होता है तब भाषण माला आरंभ की जाती है | वेदांत की एक प्रसिद्ध कहानी है कि यात्रा पर निकले 10 मनुष्यों में से सबने वारी वारी गिनती की तब हर वार 9 की गिनती पूरी होती थी तो दशमी की खोज आरंभ हुई तो पता चला कि गिनती करने वाला स्वयं को छोड़कर ही पर कोई हिसाब लगाता रहता है, फिर काम का सिलसिला कैसे बैठता ? क्योंकि संसार को सुधारने का ठेका लेने वाले सुधार के असली मुद्दे की बात ही भूल जाते हैं की इस संसार में हो हम भी तो शामिल हैं | इस कारण हमारा सारा चरित्र विरोधाभास का ही उदाहरण बन जाता है | मोन का प्रचार करने के लिए भाषण करना और उसका प्रचार समझ में नहीं आता | लेखक बताते हैं कि – हम भी आज इस गड़बड़ी के शिकार हैं | हर जगह लोग कहते हैं कि काम करने के लिए मनुष्य ही नहीं किंतु हर आदमी अपनी ही छोड़ कर दूसरों की गिनती शुरू करने के लिए तत्पर है |
महाभारत कथा में उल्लेख आता है कि अर्जुन को विश्वरूप दर्शन इच्छा हुई | भगवान कृष्ण ने उनकी यह इच्छा अच्छी तरह पूरी कर दी की दूसरी बार वह विश्वरूप दर्शन का नाम भी भूल गया | स्वरूप देखो, विश्वरूप न देखो | वर्तमान समय में एक अरब से ऊपर मनुष्यों के शरीर खादीमय हो जाने चाहिए | लेखक का मत है कि 10 करोड़ परिवारों में 10 करोड़ चरखो का प्रवेश हो जाना चाहिए यह है खादी का विश्वरूप | इसके विपरीत मेरा शरीर खादीमाय हो जाए | मुझे प्रतिदिन कम से कम एक घंटा तो चरखा चलाना भी चाहिए | यह है खादी का स्वरूप | वास्तविकता यह है कि खादी पहनने वाले भी खादी का स्वरूप तक नहीं जानते हैं |
विनोद जी का कहना है कि भारत में बसी हुई सभी जातियों हिंदू मुस्लिम पारसी ईसाई इत्यादि सभी समाजों में अहिंसक वृति उत्पन्न हो जानी चाहिए | यह तो है अहिंसा का विश्वरूप | इसी प्रकार तमाम शिक्षक और विद्यार्थी सरकारी शालाओं का त्याग कर दें | यह राष्ट्रीय शिक्षा का विश्वरूप है, परंतु में अथवा मेरे बच्चे सरकारी शालाओं में नहीं जाएंगे, मैं दो चार लड़कों को राष्ट्रीय शिक्षा दूंगा, मेरा अध्ययन और चिंतन सतत जारी रहेगा यह है राष्ट्रीय शिक्षा का स्वरूप| लेकिन स्वरूप दर्शन और विश्वरूप दर्शन ऐसे दो अंग हैं जिनमें पहला अंग मनुष्य के हाथ में है, दूसरा भगवान के अधीन | इसलिए हमें स्वरूप का ही ध्यान रखना चाहिए, विश्वरूप की चिंता करने के लिए भगवान समर्थ है | इसलिए उनकी चिंता हो अपनी चिंता बना लेने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि मनुष्य के बस में केवल स्वरूप दर्शन है| विनोबा भावे मानते हैं कि स्वदर्शन मैं ही विश्व दर्शन उत्तम साधन है | कोई स्वम् हिंसक बने संसार को अहिंसक बनाने की बात सोचें तो उसी स्थिति उन पर वाली ही होगी जिन्होंने सेम छत्रिय होकर पृथ्वी को नी:छत्रिय करना चाहा था | स्व – दर्शन से ही ब्रह्म रूप संभव है |