आजाद से अबुल कलाम का सफर | Part – 6
आजाद से अबुल कलाम का सफर | Part – 6
हिन्दू-मुस्लिम एकता
भारत में अनेक धर्मों के मानने वाले रहते हैं। कम ही ऐसे देश हैं, जहाँ इतनी अलग-अलग धार्मिक परंपराएँ एक साथ फली-फूली हैं। इन अनेक धर्मावलंबियों में हिंदुओं की संख्या सबसे अधिक है, इसके बाद मुसलमानों की। अंग्रेजों का शासन स्थापित होने के पूर्व भारत के अनेक राज्यों में हिंदू या मुस्लिम शासक सत्ता में थे। इनमें कभी लड़ाई भी होती थी और कभी मैत्री भी। ___अंग्रेजों ने धीरे-धीरे इन सबों को जीत कर या अधीनस्थ बनाकर अपना एकछत्र शासन स्थापित कर लिया। मगर उनके दमन, शोषण, उत्पीड़न के कारण और भारतीयों की धार्मिक आस्थाओं का सम्मान न करने के कारण उनके विरुद्ध हिंदुओं और मुसलमानों-दोनों में आक्रोश था। इसी की परिणति थी-1857 का महासंग्राम। ___ विदेशी सत्ता के विरुद्ध इस महान, यद्यपि असफल, संघर्ष में हिंदुओं और मुसलमानों ने एकजुट होकर अपनी लड़ाई लड़ी थी। इस एकता को तोड़ने के लिए अंग्रेजों ने “फूट डालो और शासन करो” की नीति अपनाई। इन दोनों के बीच पारस्परिक अविश्वास. को बढ़ाकर इन्होंने राष्ट्रीय आंदोलन को कमज़ोर करने की कोशिश की। उन्हें कुछ सफलता भी मिली, क्योंकि सांप्रदायिकता की राजनीति धीरे-धीरे देश में पनपने लगी थी। बंगाल का विभाजन (1905), सांप्रदायिक मतदान की व्यवस्था (1909) और अन्य उपायों के माध्यम से ब्रिटिश सरकार ने इस द्वेष को और बढ़ावा दिया।
गांधीजी, मौलाना आज़ाद और कई नेता यह चाहते थे कि राष्ट्रीय आंदोलन में हिंदुओं और मुसलमानों की एकता अटूट रहे। इसीलिए आज़ाद ने मुसलमानों में अलगाव की भावना और उस समय की सांप्रदायिक राजनीति का विरोध किया।
उन्होंने अपने एक लेख में संदेश दिया था:
“सबसे पहली हकीकत यह है कि मुसलमान होने के नाते मुसलमानों का कर्त्तव्य है कि वे अपने हिंदू भाइयों के साथ हो जाएँ। मेरा विश्वास है कि हिन्दस्तान में हिन्दस्तान के मुसलमान तब तक अपने सर्वोच्च दायित्व नहीं पूरा कर सकते, जब तक कि वे इस्लामी आदेशों के अनुरूप हिन्दुस्तान के हिन्दुओं से पूरी सच्चाई के साथ । एकता और सहमति न कर लें।”
मौलाना आजाद का यह संदेश बहुत महत्वपूर्ण था, क्योंकि उस समय भारत में उभर रहे नये मुस्लिम नेतृत्व में उनका स्थान सबसे ऊँचा था। इसी के साथ उन्होंने मुस्लिम धर्माचार्यों को भी खुला संदेश दिया कि वे राष्ट्रीय आंदोलन से पूरी तरह जुड़ जाएँ। इसका परिणाम यह हुआ कि जब मुस्लिम धर्माचार्यों के नेतृत्व में जमिअतुल उलेमा-ए-हिन्द की स्थापना हुई, तो इसका भरपूर समर्थन कांग्रेस को प्राप्त रहा।
हिन्दू-मुस्लिम एकता को मौलाना आजाद ने देश की आजादी से भी महत्वपूर्ण माना। अपने एक भाषण में उन्होंने कहा था:
“आज अगर एक फरिश्ता आस्मा की बुलंदियों से उतर आए और देहली के कुतुबमीनार पर खड़ा होकर यह एलान करे कि स्वराज 24 घंटे के अंदर मिल सकता है, बशर्ते कि हिन्दुस्तान हिन्दू-मुस्लिम एकता से दूर हो जाए, तो मैं आजादी से दूर हो जाऊँगा, लेकिन हिन्दू-मुस्लिम एकता नहीं छोडूंगा। क्योंकि अगर हमें स्वराज नहीं मिला, तो हिन्दुस्तान का नुकसान होगा, लेकिन अगर हिन्दू-मुस्लिम एकता कायम न हो सकी, तो यह दुनिया की इंसानियत का नुकसान होगा।”
हिन्दू-मुस्लिम एकता का इतना स्पष्ट और सशक्त समर्थन शायद ही किसी ने किया हो। आजाद को अपने इन विचारों के कारण मुसलमानों के एक वर्ग, जो साम्प्रदायिक राजनीति से प्रभावित था, का विरोध भी झेलना पड़ा। फिर भी उनका विश्वास अडिग रहा। ___आज जब देश आज़ाद है और प्रगति-पथ पर निरंतर आगे बढ़ रहा है, मौलाना आजाद के इस संदेश का महत्व और भी अधिक बढ़ गया है, क्योंकि एकता और शांति के वातावरण में ही समावेशी विकास संभव है और यही राष्ट्रीय आंदोलन का लक्ष्य भी था।
सरकारी दमन और जेल-यात्रा
देश की आजादी की लड़ाई में हजारों क्या, लाखों लोग जेल गये। इनमें हमारे सभी प्रमुख राष्ट्रीय नेता भी थे। ब्रिटिश सरकार चूंकि स्वतंत्रता के लिये उठते स्वर को दबा देना चाहती थी, इसलिए अनेक बार राष्ट्रवादियों को जेल की सजा दी गई। इनमें बड़े नेता भी थे, साधारण कार्यकर्ता भी थे और आमजन भी थे।
ब्रिटिश सरकार ने अन्य दमनकारी उपाय भी अपनाये, जिनमें पुलिस बल का उपयोग और कठोर दण्ड भी शामिल थे। लेकिन इन सब क्रूर उपायों से स्वतंत्रता सेनानियों का मनोबल नहीं टूटा। गांधीजी ने शांतिपूर्ण सत्याग्रह का जो इतिहास चंपारण में रचा था- उसके बाद लोगों के मन से जेल जाने का डर भी मिट गया था और यह विश्वास भी मजबूत हुआ था कि सत्य और अहिंसा के आगे क्रूर सरकार को भी कभी-कभी विवश होना पड़ता है। ____मौलाना आजाद भी दमनकारी उपायों के शिकार हुए। कुल मिलाकर, वह छह (6) बार जेल गये। कुछ समय के लिये उन्हें अपना शहर कलकत्ता भी छोडना पडा। इसमें सबसे अधिक अवधि, चार वर्ष से अधिक, अहमदनगर किले की जेल में बीती। इसके अतिरिक्त वह नैनी, बाँकुड़ा, मेरठ और अलीपुर में भी जेल में रखे गए। ___आजाद के विरुद्ध सरकारी दमन उनकी पत्रकारिता का परिणाम था। वर्ष 1912 में आजाद ने “अल-हिलाल” नामक समाचार-पत्र का प्रकाशन आरंभ किया था, जो सरकार की तीखी आलोचना के कारण लोगों में बहुत लोकप्रिय था। इसके आलेखों को सरकार ने आपत्तिजनक माना और इसके संपादक एवं प्रकाशक (आजाद) से 2000 रुपये बतौर ज़मानत जमा कराने का आदेश दिया। यह जमानत इस बात की थी कि समाचार-पत्र में सरकार के विरुद्ध भड़कानेवाली भाषा का प्रयोग नहीं होगा। लेकिन मौलाना आजाद के मन में देश-प्रेम का जो तूफान मचा था, उसके कारण सरकारी नियंत्रण को मानना कठिन था। अक्टूबर, 1914 का अंक सरकार द्वारा कब्जे में ले लिया गया, ताकि यह आम पाठकों तक नहीं पहुँच सके। पहले दी गई जमानत की राशि जब्त कर ली गई और 10000 रुपये की नयी जमानत की माँग की गई। आजाद ने तब “अल-हिलाल” का प्रकाशन बंद करने का फैसला किया। ब्रिटिश सरकार से यह उनका पहला प्रत्यक्ष टकराव था और विरोध की अभिव्यक्ति थी।
1920 में आजाद सक्रिय राजनीतिक गतिविधियों में भाग लेने की स्थिति में आ गये। तब उन्होंने खिलाफत आंदोलन और साथ-साथ असहयोग आंदोलन में पूरी सक्रियता के साथ भाग लिया। 10 दिसम्बर, 1921 को उन्हें कलकत्ता में उनके घर से गिरफ्तार किया गया। उन्होंने उस समय यह संदेश देशवससियों को दिया थाः
“जो विश्वास रखनेवाले हैं, वे कभी चिंतित या दुखी नहीं होंगे। उन्हें पूरी तरह संतुष्ट रहना चाहिए कि अपने दृढ़ विश्वास से सभी दमन पर विजयी होंगे। हमारी विजय चार बातों पर निर्भर करेगी और यह हैं हिंदुओं और मुसलमानों के बीच पूर्ण एकता, शांति, अनुशासन और सतत् बलिदाना
अदालत में उन्होंने मैजिस्ट्रेट को इन शब्दों में संबोधित किया था:
“मैजिस्ट्रेट साहब, मैं अदालत का और ज्यादा समय नहीं लूँगा। आज हम दोनों एक रोचक, बल्कि अचरजपूर्ण इतिहास की रचना कर रहे हैं। मेरे हिस्से में अभियुक्त का कटघरा आया है और आपके हिस्से में मजिस्ट्रेट का आसन मैं मानता हूँ कि इस काम में आपका आसन भी उतना ही महत्वपूर्ण है, जितना मेरा यह कटघरा। आइये, हम अपने इस काम को जल्द पूरा कर लें, जो एक यादगार कहानी बनने जा रहा है। इतिहासकार हमारे साथ खड़ा है और भविष्य देर से हमारी प्रतीक्षा कर रहा है। आप अपना फैसला जल्दी कर लें, ताकि मैं बार-बार इस जगह आ सकूँ। इस प्रक्रिया को इसी तरह कुछ समय तक चलने दीजिए, जब तक कि एक दूसरी अदालत के दरवाज़े न खुल जाएँ। वह अदालत दैवी विधान की अदालत होगी। वक्त हमारे बीच फैसला करेगा और जो फैसला वह लिखेगा. वह अंतिम और अपरिवर्तनीय फैसला होगा।
फरवरी, 1922 में आजाद को एक साल की कैद की सजा सुनाई गई थी। 1931 में नमक-सत्याग्रह के समय मौलाना आजाद फिर एक बार गिरफ्तार हुए। गांधी-इर्विन समझौते के फलस्वरूप उन्हें भी अन्य राजनीतिक बंदियों की तरह छोड़ दिया गया। द्वितीय गोलमेज सम्मेलन की असफलता के बाद भारत में पुनः राजनीतिक असंतोष बढ़ने लगा था। इस समय 1932 में आज़ाद को फिर एक बार दिल्ली में एक साल के लिये कैद में रखा गया।
1940 में गांधी जी ने “व्यक्तिगत सत्याग्रह’ का आह्वान किया।
विनोबा भावे, जवाहरलाल नेहरू जैसे नेताओं ने सत्याग्रह आरंभ किया। आजाद उस समय पंजाब की यात्रा में व्यस्त थे। वापसी के क्रम में उन्हें इलाहाबाद स्टेशन पर अचानक गिरफ्तार कर लिया गया। उन्हें नैनी केन्द्रीय जेल में रखा गया। कैद की सज़ा दो वर्षों की थी, मगर बदलती हुई राजनीतिक परिस्थितियों के कारण उन्हें समय के पूर्व अक्टूबर, 1941 में ही रिहा कर दिया गया।
1942 ई. में “भारत छोड़ो आंदोलन” के क्रम में आजाद अंतिम बार जेल गए। उन्हें अहमदनगर के किले मैं कैद रखा गया। जवाहर लाल नेहरू भी इसी जेल में कैद थे।
ब्रिटिश सरकार ने भारतीय नेताओं को आजादी के बाद सत्ता सौंपने के बारे में वार्ता करने के लिए 1946 ई. में कैबिनेट मिशन भेजा। इसके आगमन के अवसर पर आजाद को रिहा किया गया।
कैद की यह अवधि आजाद के लिये कई अनुभवों का आधार बनी। इन सब का मनोरंजक वर्णन आज़ाद ने अपनी रचना “गुबार-ए-ख़ातिर” में किया है। उनको ना खत भेजने की अनुमति थी, ना समाचार पत्र ही उन्हें मिलते थे। कारागार के अन्य बंदियों की आपस में मुलाकात नाश्ते और खाने के समय ही होती थी। नेहरू ने तब प्रस्ताव रखा कि उन सबको बागबानी आरंभ करना चाहिए। जेल का सर्वोच्च अधिकारी (I.G. Prison) अच्छे स्वभाव का व्यक्ति था। उसने फूलों के बीज और पौधे मँगवा दिये और कैदखाने के सूने प्रांगण में धीरे-धीरे सैंकड़ों फूल लहलहाने लगे। आज़ाद लिखते हैं कि फूलों का खिलना उन सबों के मन में नई आशा जगाये रखने में सहायक था। फूलों की सुदंरता की वे इन शब्दों में चर्चा करते है: “कोई याकूत (लाल) का प्याला था, तो कोई नीलम की कटोरी, किसी पर गंगा-जमुनी काम था, तो किसी पर रंगीन छींटें।” ___ मौलाना आजाद ने वहाँ के जेलर का नाम चीता खाँ रखा था। 16वीं सदी में जब चांद बीबी कैद की गई थी, तो उसकी निगरानी करने वाले सेनापति का भी नाम चीता खाँ था। चाँद बीबी अहमदनगर के बाल-शासक की संरक्षिका थी, परंतु उसके विरोधियों ने उसे कैद कर दिया था। आजाद की पहल पर उनके साथी भी उस जेलर को चीता खाँ ही कहने लगे। अब तो उसका सही नाम भी कम लोग जानते होंगे।
हिन्दू-मुस्लिम एकता
भारत में अनेक धर्मों के मानने वाले रहते हैं। कम ही ऐसे देश हैं, जहाँ इतनी अलग-अलग धार्मिक परंपराएं एक साथ फली-फूली हैं। इन अनेक धर्मावलंबियों में हिंदुओं की संख्या सबसे अधिक है, इसके बाद मुसलमानों की। अंग्रेजों का शासन स्थापित होने के पूर्व भारत के अनेक राज्यों में हिंदू या मुस्लिम शासक सत्ता में थे। इनमें कभी लड़ाई भी होती थी और कभी मैत्री भी।
अंग्रेजों ने धीरे-धीरे इन सबों को जीत कर या अधीनस्थ बनाकर अपना एकछत्र शासन स्थापित कर लिया। मगर उनके दमन, शोषण, उत्पीड़न के कारण और भारतीयों की धार्मिक आस्थाओं का सम्मान न करने के कारण, उनके विरुद्ध हिंदुओं और मुसलमानों-दोनों में आक्रोश था। इसी की परिणति थी-1857 का महासंग्राम।
विदेशी सत्ता के विरुद्ध इस महान, यद्यपि असफल, संघर्ष में हिंदुओं और मुसलमानों ने एकजुट होकर अपनी लड़ाई लड़ी थी। इस एकता को तोड़ने के लिए अंग्रेजों ने “फूट डालो और शासन करो” की नीति अपनाई। इन दोनों के बीच पारस्परिक अविश्वास को बढ़ाकर इन्होंने राष्ट्रीय आंदोलन को कमज़ोर करने की कोशिश की। उन्हें कुछ सफलता भी मिली, क्योंकि सांप्रदायिकता की राजनीति धीरे-धीरे देश में पनपने लगी थी। बंगाल का विभाजन (1905), सांप्रदायिक मतदान की व्यवस्था (1909) और अन्य उपायों के माध्यम से ब्रिटिश सरकार ने इस द्वेष को और बढ़ावा दिया।
गांधीजी, मौलाना आजाद और कई नेता यह चाहते थे कि राष्ट्रीय आंदोलन में हिंदुओं और मुसलमानों की एकता अटूट रहे। इसीलिए आज़ाद ने मुसलमानों में अलगाव की भावना और उस समय की सांप्रदायिक राजनीति का विरोध किया।
उन्होंने अपने एक लेख में संदेश दिया था:
“सबसे पहली हकीकत यह है कि मुसलमान होने के नाते मुसलमानों का कर्त्तव्य है कि वे अपने हिंदू भाइयों के साथ हो जाएँ। मेरा विश्वास है कि हिन्दुस्तान में हिन्दुस्तान के मुसलमान तब तक अपने सर्वोच्च दायित्व नहीं पूरा कर सकते, जब तक कि वे इस्लामी आदेशों के अनुरूप हिन्दुस्तान के हिन्दुओं से पूरी सच्चाई के साथ एकता और सहमति न कर लें।”
मौलाना आजाद का यह संदेश बहुत महत्वपूर्ण था, क्योंकि उस समय भारत में उभर रहे नये मुस्लिम नेतृत्व में उनका स्थान सबसे ऊँचा था। इसी के साथ उन्होंने मुस्लिम धर्माचार्यों को भी खुला संदेश दिया कि वे राष्ट्रीय आंदोलन से पूरी तरह जुड़ जाएँ। इसका परिणाम यह हुआ कि जब मुस्लिम धर्माचार्यों के नेतृत्व में जमिअतुल उलेमा-ए-हिन्द की स्थापना हुई, तो इसका भरपूर समर्थन कांग्रेस को प्राप्त रहा।
हिन्दू-मुस्लिम एकता को मौलाना आजाद ने देश की आजादी से भी महत्वपूर्ण माना। अपने एक भाषण में उन्होंने कहा था:
“आज अगर एक फरिश्ता आस्मां की बुलंदियों से उतर आए और देहली के कुतुबमीनार पर खड़ा होकर यह एलान करे कि स्वराज 24 घंटे के अंदर मिल सकता है, बशर्ते कि हिन्दुस्तान हिन्दू-मुस्लिम एकता से दूर हो जाए, तो मैं आज़ादी से दूर हो जाऊँगा, लेकिन हिन्दू-मुस्लिम एकता नहीं छोडूंगा। क्योंकि अगर हमें स्वराज नहीं मिला, तो हिन्दुस्तान का नुकसान होगा, लेकिन अगर हिन्दू-मुस्लिम एकता कायम न हो सकी, तो यह दुनिया की इंसानियत का नुकसान होगा।”
हिन्दू-मुस्लिम एकता का इतना स्पष्ट और सशक्त समर्थन शायद ही किसी ने किया हो। आजाद को अपने इन विचारों के कारण मुसलमानों के एक वर्ग, जो साम्प्रदायिक राजनीति से प्रभावित था, का विरोध भी झेलना पड़ा। फिर भी उनका विश्वास अडिग रहा। ____ आज जब देश आज़ाद है और प्रगति-पथ पर निरंतर आगे बढ़ रहा है, मौलाना आजाद के इस संदेश का महत्व और भी अधिक बढ़ गया है, क्योंकि एकता और शांति के वातावरण में ही समावेशी विकास संभव है और यही राष्ट्रीय आंदोलन का लक्ष्य भी था।
शिक्षा मंत्री : दर्शन और दृष्टि
1946 में मौलाना आजाद भारत के शिक्षा मंत्री बने। उस समय देश स्वतंत्र नहीं हुआ था, मगर स्वतंत्रता के नजदीक था और अंतरिम सरकार का गठन हो चुका था। 1947 में देश स्वतंत्र हुआ, तो मौलाना आजाद पुन: शिक्षा मंत्री बने। 1958 में अपनी मृत्यु तक वे इस दायित्व को निभाते रहे।
___ आजाद पश्चिमी शिक्षा का महत्व स्वीकार करते थे, क्योंकि इसके माध्यम से भारत के लोग विज्ञान और प्रौद्योगिकी के आधुनिक रूप को जान सके थे, भारत की शिक्षा प्रणाली अंतरराष्ट्रीय मानकों पर खरी साबित हुई थी और इससे राष्ट्रीय चेतना का विकास हुआ था। मगर वे इसकी कुछ विशेषताओं के आलोचक भी थे। इसमें शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी भाषा थी, जबकि इस काम के लिए मातृ-भाषा ज़्यादा उपयुक्त थी। सबसे बड़ी कमी यह थी कि इस शिक्षा का लाभ केवल एक छोटे-से वर्ग को मिला था। अधिकांश लोग इससे वंचित रहे थे। इन्हीं विचारों और अनुभवों ने उनकी शिक्षा नीति को प्रभावित किया। ___ भारत में नई शिक्षा-प्रणाली का विकास उनका उद्देश्य था। इसलिए उन्होंने शिक्षा के विषय पर दो आयोग नियुक्त किये। 1948 में विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग और 1952 में उच्च शिक्षा आयोग। इसके अध्यक्ष डॉ. सर्वपल्ली राधाकृषणन थे, जिनकी स्मृति में हम 5 सितंबर को हर वर्ष शिक्षक दिवस मनाते हैं। वे देश के पहले उप-राष्ट्रपति और दूसरे राष्ट्रपति भी रहे। इन दोनों आयोगों के सुझावों के अनुसार शिक्षा की उन्नति के लिये कई महत्वपूर्ण उपाय किये गए। 1953 में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग का गठन इस दिशा में एक महत्त्पूर्ण पहल थी। मौलाना आजाद ने कई अन्य संस्थाओं की स्थापना की और उनके विकास में रुचि ली।
शिक्षा-संबंधी उनके मूल विचारों की समीक्षा हम इस तरह कर सकते हैं:
1. वे पारंपरिक शिक्षा को ज्यादा लाभदायक बनाना चाहते थे और इस
व्यवस्था को समाज के लिये अधिक लाभप्रद मानते थे।
2. वे बुनियादी शिक्षा में विश्वास रखते थे। उनका मानना था कि 12 वर्ष तक की उम्र के सभी बच्चों का जन्मसिद्ध अधिकार है कि उन्हें
बुनियादी शिक्षा प्राप्त हो।
3. वे मातृभाषा को शिक्षा का सही माध्यम मानते थे।
4. वे जन-शिक्षा में विश्वास करते थे, ताकि समाज के सभी वर्गों तक शिक्षा का लाभ पहुँच सके।
5. भारतीय दर्शन और आध्यात्मिकता की उपयोगिता को वे मानते थे और इसका ज्ञान प्रसारित करने में उनका विश्वास था। साथ ही, वे पाश्चात्य राजनैतिक दर्शन और विज्ञान की उपयोगिता के भी समर्थक थे और उनके साथ तालमेल बनाये रखने के महत्व को समझते थे।
6. उच्च शिक्षा की गुणवत्ता को बनाए रखने के लिये वे शोध और अनुसंधान की अनिवार्यता स्वीकार करते थे। मौलिक शोध को विज्ञान
और समाज विज्ञान-दोनों विधाओं में उन्होंने प्रोत्साहन दिया।
7. महिलाओं की शिक्षा को उन्होंने अनिवार्य माना।
8. वे इतिहास के प्रति तार्किक और वैज्ञानिक चेतना में विश्वास रखते थे, ताकि ब्रिटिश शासनकाल में जो भ्रम भारत के इतिहास के प्रति रहा
था, उसका निदान हो सके।
मौलाना आजाद ने अपने एक भाषण में कहा था कि शिक्षा का उद्देश्य वह शिक्षा नहीं है, जो व्याकरण और कुछ सिद्धांतों के आधार पर पाठशालाओं और मक्तबों में पढ़ाई जाती है। शिक्षा को वे बहुमुखी मानसिक विकास और चरित्र निर्माण का माध्याम मानते थे। . उनके लिए शिक्षा का सबसे महत्वपूर्ण रूप सामाजिक शिक्षा था। वे मानते थे कि जन की शिक्षा. सबसे पवित्र काम है। ऐसे समय में जब देश में वयस्क मतदान लागू हो गया था, वे लोगों को उनके वोट या मत के बारे में जागरूक बनाना चाहते थे। उनकी इच्छा थी कि निरक्षर प्रौढ़ लोगों को भी ऐसी शिक्षा दी जाए, जिससे वे सामाजिक और राजनीतिक दायित्व को सही ढंग से पहचान सकें और राष्ट्र-निर्माण में उनका भी योगदान रहे।
युवा पीढ़ी के बारे में उनका मानना था कि उन्हें इस ढंग से शिक्षा दी जाए, कि वे भी आनेवाले समय में अपनी राजनीतिक और सामाजिक जिम्मेदारियों को निभाने के योग्य बन सकें।
__ भारत की समृद्ध विरासत और प्राचीन धरोहरों की रक्षा के लिये भी उन्होंने सुनिश्चित प्रयास किए। ____ पुस्तकालयों की उपयोगिता, शिक्षा की गुणवत्ता और विज्ञान और प्रौद्योगिकी की अनिवार्यता को आजाद भलीभाँति समझते थे और उन्हें नई शिक्षा प्रणाली में अत्यंत महत्वपूर्ण मानते थे।
_मौलाना आजाद के ये विचार आज भी अनुकरणीय हैं, क्योंकि शिक्षा का विकास तो निरंतर होता रहता है, मगर उसके आदर्श, उसके उद्देश्य एक जैसे बने रहते हैं।
शिक्षा के क्षेत्र में मौलाना आजाद का बहुमुखी योगदान ऐसा रहा कि 12
वर्षों की अवधि में उन्होंने 25 ऐसी संस्थाओं का निर्माण किया, जो आज भी सक्रिय हैं। सुविधाओं और संसाधनों के अभाव में वे सभी लक्ष्य उनके जीवन में प्राप्त नहीं हो सके जो वे चाहते थे। 1947 में जब मौलाना आजाद शिक्षा मंत्री बने, तो शिक्षा के लिये बजट में 02 करोड़ की वार्षिक राशि निर्धारित थी। 1958 में, अर्थात् उनके कार्यकाल के अंत में, यह बढ़कर 30 करोड़ हो गई थी। 11 वर्षों से कम में यह पंद्रह गुना वृद्धि एक महान उपलब्धि थी। उनके प्रयासों ने भारत में शिक्षा, विज्ञान, कला और संस्कृति के विकास की दिशा निर्धारित कर दी थी।
____ मौलाना आजाद की नज़र में शिक्षा का एक महत्वपूर्ण आयाम शारीरिक शिक्षा भी था। खेल और क्रीड़ा को वे युवाओं के मानसिक और शारीरिक विकास में अनिवार्य मानते थे। 1954 ई. में उन्होंने दिल्ली में काउन्सिल ऑफ़ स्पोर्ट्स का आयोजन किया था। 1956-57 ई. में उनके सम्मान में भारत सरकार ने मौलाना अबुल कलाम आजाद ट्रॉफी की शुरुआत की। यह ट्रॉफी हर वर्ष भारत के राष्ट्रपति द्वारा उस विश्वविद्यालय को प्रदान की जाती है, जिसके खिलाड़ियों ने अंतर-विश्वविद्यालय, राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खेल (Sports) में सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन किया हो।