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आजाद से अबुल कलाम का सफर | Part – 2

आजाद से अबुल कलाम का सफर | Part – 2

आजाद से अबुल कलाम का सफर | Part – 2

आजाद और जुलैखा

13 वर्ष की उम्र में आजाद का विवाह जुलैख़ा (बेगम) से हुआ। आज बाल-विवाह वर्जित है, कानूनन अपराध है; मगर उस समय कम आयु में ही विवाह होते थे। वैसे आजाद इस कम आयु के विवाह से खुश नहीं थे और उस शाम वे खूब रोये थे। 6 वर्ष की जुलैखा भी अचंभित थी कि यह क्या तमाशा हो रहा था। लेकिन समय के साथ और समझ बनने के साथ दोनों का दाम्पत्य जीवन उनके लिए अत्यंत सुखद रहा। ___ जुलैखा बेगम का संबंध भी धर्माचार्यों के परिवार से था। उन्हें उर्दू और फारसी भाषाओं का ज्ञान था। पारंपरिक इस्लामी शिक्षा, जो उस समय महिलाओं को दी जाती थी, उन्हें भी प्राप्त थी। सेवा और समर्पण की भावना उनमें भरी हुई थी। उनके रूप में आजाद को ऐसी जीवन संगिनी मिली जिसने उनके बौद्धिक कार्यों और राष्ट्रवादी गतिविधियों में पूरी तन्मयता से साथ दिया। जब आजाद अपनी कालजयी पुस्तक “तर्जुमानुल कुरआन’ लिख रहे थे, तो घंटों जुलैखा बेगम बैठकर हाथ से उनके लिए पंखा झला करती थीं। __आज़ाद और जुलैखा की एकमात्र संतान एक बालक था, जिसका नाम “हसीन” था और वह अत्यंत सुंदर था। मगर उसकी मृत्यु मात्र 4 वर्ष में ही हो गयी। माता और पिता के लिये यह बड़े दुःख की बात थी। आजाद ने अपना दुःख सबके दुःख से जोड़ लिया और देशवासियों की आजादी की लड़ाई में जुट गए, मगर जुलैख़ा के लिए यह संभव न हो सका। पुत्र के शोक और आज़ाद की बार-बार जेल-यात्रा ने उनके जीवन में एक शून्य-सा पैदा कर दिया। इसका उनके स्वास्थ्य पर बुरा प्रभाव पड़ा। लेकिन अपनी परेशानियों को उन्होंने कभी आज़ाद की राह में बाधा नहीं बनने दिया। जब आजाद को असहयोग आंदोलन के क्रम में जेल की सजा हुई, तो जुलैखा बेगम ने गांधीजी से अनुरोध करना चाहा कि आजाद की अनुपस्थिति में वे उनका दायित्व संभालने को तैयार हैं। मगर उनका यह संदेश तार विभाग ने भेजने से मना कर दिया। वैसे भी. असहयोग आंदोलन स्थगित हो गया। सक्रिय राजनीति में भाग लेने का अवसर जुलैखा बेगम को नहीं मिला। आजाद स्वयं लिखते हैं – “वह मानसिक स्तर पर मेरे विश्वास और विचारों से सहमत थी और व्यावहारिक जीवन में मेरी साथी और सहायक।”

दोनों की अंतिम मुलाकात 1942 में हुई थी, जब आजाद कांग्रेस के वार्षिक अधिवेशन में भाग लेने कलकत्ता से बंबई जा रहे थे। उस समय कोलकाता और

मुंबई नाम प्रचलित नहीं थे। जुलैख़ा की बीमारी तब तक बहुत बढ़ गयी थी। जब आज़ाद ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ के क्रम में अहमदनगर के किले में कैद थे, तभी जुलैख़ा बेगम की मौत कलकत्ता में 9 अप्रैल, 1943 को हो गई। आजाद के आत्म-सम्मान और देश-प्रेम ने उन्हें ब्रिटिश सरकार से इस दुःखद घड़ी में भी रिहाई के लिए अनुरोध करने की इजाजत नहीं दी। लेकिन उनकी पीड़ा इन शब्दों में दिखाई पड़ती है, ” मेरे संकल्प ने मेरा साथ नहीं छोड़ा, मगर मुझे महसूस हुआ कि मेरे पाँव शल (बेजान) हो गए हैं।” ___ 1945 में आज़ाद वापस कलकत्ता लौटे। अपने घर पहुँचने से पहले वे जुलैखा बेगम की कब्र पर गए। उनकी गाड़ी पर फूलों के जो हार पड़े थे, उनमें से एक हार उन्होंने अपनी पत्नी की कब्र पर रख दिया और उनकी आत्मा की शान्ति के लिए प्रार्थना की। तभी उन्हें ध्यान आया कि जब वे घर पहुँचेंगे, तो उसे खाली पायेंगे। उनके स्वागत के लिए जुलैखा बेगम नहीं होंगी।

अनायास, उन्हें William wordsworth की यह पंक्तियाँ याद आ गईं :

” But she is in her grave and oh!

The difference to me “

विदेश-यात्राएँ

आजाद का जन्म तो मक्का में हुआ था, मगर वे अपने पिता और परिवार के साथ 1897 में स्वदेश वापस आ गए थे। लगभग 10 वर्षों के बाद 1908-09 में उन्होंने अपनी पहली विदेश-यात्रा की जिसकी चर्चा उन्होंने इन शब्दों में की है,

“मुझे भारत से बाहर जाने का अवसर मिला

और मैंने इराक, मिन, सीरिया और तुर्की की यात्रा की। फिर मैं फ्रांस गया। मेरा इरादा लंदन भी जाने का था, मगर उसी समय पिताजी की बीमारी की खबर मिली और मैं वापस लौट गया। फिर बहुत वर्षों के बाद मैं

लंदन की यात्रा कर सका। तब इराक और सीरिया स्वतंत्र देश नहीं थे। इन दोनों पर तुर्की के ऑटोमन सुल्तानों का शासन था। मिस्र में भी ऑटोमन शासक (सुल्तान) का वर्चस्व औपचारिक रूप से माना जाता था। मगर वहाँ के प्रांतपति को स्वायत्त शासन का अधिकार था। उनकी उपाधि खदीद थी। यहाँ आजाद को तुर्की के राष्ट्रवादी नेताओं से मिलने का अवसर मिला। ये नेता “युवा तुर्क” कहलाते थे और ऑटोमन साम्राज्य में जनतंत्रीय शासन लाना चाहते थे। 1908 में उन्होंने एक सफल क्रांति के माध्यम से तुर्की में जनतंत्र की स्थापना भी की। मगर औपचारिक सत्ता अभी भी सुल्तान की ही रही। यह व्यवस्था “संवैधानिक राजतंत्र’ की व्यवस्था थी। इस यात्रा में पहली बार भारत से बाहर की दुनिया और खासकर अरब जगत की राजनीति को समझने का अवसर आज़ाद को मिला। इसका प्रभाव उनके राजनीतिक विचारों पर पड़ा। भारत आनेवाले ऑटोमन शासक के प्रतिनिधि जमालुद्दीन अफगानी से भी उनकी भेंट हुई थी। उसी की प्रेरणा से आजाद ने ऑटोमन सम्राट का समर्थन आरंभ किया।

मिन की राजधानी काहिरा में जामिया-अल-अज़हर भी जाने का अवसर आजाद को मिला। “जामिया की स्थिति विश्वविद्यालय के समान होती है। जामिया अज़हर इस्लामी विद्या का सबसे प्रतिष्ठित केन्द्र था। मगर आजाद की नजर में वहाँ का पाठ्यक्रम उपयोगी नहीं था। इसमें न आधुनिक विचार थे, न लाभप्रद इस्लामी शिक्षा ही थी। शिक्षा मंत्री बनने के बाद मई से जुलाई 1956 ई. में आज़ाद ने पुनः

विदेश-यात्रा की। वे लंदन और पेरिस गए। लंदन में रहने वाले भारतीय छात्रों को उन्होंने ‘इंडिया हाउस’ में संबोधित भी किया। पेरिस में UNESCO (United Nations Economic,Social and CulturalOrganisation) के मुख्यालय भी वे गए। वहाँ से वापसी के बाद ही उन्होंने नई दिल्ली में UNESCO के नौवें सामान्य अधिवेशन का आयोजन किया तथा इसकी अध्यक्षता की।

इन विदेश-यात्राओं ने आजाद के अंतरराष्ट्रीय दृष्टिकोण के विकास में अपने प्रभाव छोड़े। वे पश्चिम के ज्ञान और पूरब के अध्यात्म, दोनों के ही प्रशंसक थे और दोनों में समन्वय और संतुलन चाहते थे। वे मानवीय मूल्यों और जीवनशैली, दोनों को उन्नत बनाने के इच्छुक थे और दोनों को महत्वपूर्ण मानते थे। आज़ाद का मानना था कि पश्चिमी और पूर्वी मूल्यों में टकराव की बात एक मिथ्या धारणा है, इसका कोई वास्तविक आधार नहीं है। उनका विश्वास था कि ये दोनों परंपराएँ एक-दूसरे को समृद्ध बनाने में सहायक हो सकती हैं। एक समर्पित राष्ट्रवादी होने के साथ उनकी अंतरराष्ट्रीय चेतना का यह मेल उन्हें अपने समय की महान प्रतिभाओं के बीच प्रतिष्ठित करता है।

ऑटोमन साम्राज्य और भारतीय मुसलमान

19 वीं शताब्दी का अंत और 20 वीं शताब्दी का आरंभिक चरण सारे विश्व में महत्वपूर्ण परिवर्तनों और समस्याओं का काल था। यूरोपीय देशों के बीच साम्राज्यवादी प्रतिस्पर्धा तेज़ होती जा रही थी। इसी की परिणति प्रथम विश्व युद्ध (1914-18) में हुई। यह मौलाना अबुल कलाम की युवावस्था का समय था, जब उनमें उत्साह था और कुछ करने की प्रबल इच्छा थी। उस समय मुसलमानों के बीच सर्व-इस्लामी (Pan Islamic) विचार लोकप्रिय हो रहे थे। इस विचार का प्रवर्तक जमालुद्दीन अफ़गानी नामक एक राजनीतिक विचारक था। सरल शब्दों में हम इस विचार को इस तरह समझ सकते हैं कि इसके माध्यम से सारे विश्व के मुसलमानों को उस समय के ऑटोमन सम्राट के नेतृत्व में राजनीतिक एकता के सूत्र में बाँधना था। ऑटोमन सम्राट खुद को ख़लीफा मानता था। अतः वह सारे मुसलमानों का धार्मिक प्रधान था।

ऑटोमन साम्राज्य एक विशाल, किन्तु कमज़ोर साम्राज्य था। इसका केन्द्र तुर्की था और विस्तार पूर्वी यूरोप से पश्चिमी एशिया तक था। यूरोप के साम्राज्यवादी देशों के षड्यंत्र और हस्तक्षेप से इस साम्राज्य का निरंतर पतन और विघटन हो रहा था। इस विनाशकारी परिस्थिति को इंग्लैंड की नीतियों से बढ़ावा मिल रहा था। ___ उस समय ऑटोमन सम्राट अब्दुल हमीद द्वितीय (1876-1908) था। उसने भारत में अपने प्रचारक भेजे, ताकि भारतीय मुसलमानों के बीच उसके लिए समर्थन प्राप्त किया जा सके। तब भारतीय मुसलमानों में दो तरह के विचार उभर रहे थे। एक ओर अबुल कलाम जैसे जोशीले युवा थे, जो तुर्की के सुल्तान का हर प्रकार से समर्थन करना चाहते थे, क्योंकि वह सारे मुसलमानों का ख़लीफा या धार्मिक प्रधान था। दूसरी तरफ़ सर सैय्यद जैसे सुधारवादी थे, जिनका मानना था कि मुसलमानों को राजनीतिक गतिविधियों से अलग रहकर अपने शैक्षिक और सामाजिक विकास पर ध्यान देना चाहिए। याद रखने की बात यह है कि मौलाना अबुल कलाम आजाद का मानना था कि उनका धर्म आधुनिकीकरण

और सामाजिक प्रगति में कहीं बाधक नहीं था। इस तरह, वे सर सैय्यद के विचारों की अनदेखी नहीं कर रहे थे।

भारत में मुसलमानों की संख्या उस समय काफ़ी थी। इनके द्वारा भारत में

ब्रिटिश शासन का विरोध एक राजनीतिक आंदोलन बन सकता था। अबुल कलाम के मन में यह बात घर करने लगी कि ब्रिटिश सत्ता यदि विश्व राजनीति में मुसलमानों के लिए विनाशकारी थी, तो भारत में सभी भारतीयों (हिन्दुओं और मुसलमानों) के लिए उसी तरह हानिकारक थी। इसी चेतना ने उन्हें राष्ट्रीय आंदोलन में हिन्दुओं के साथ मुसलमानों को जोड़ने की प्रेरणा दी। राष्ट्रीय आंदोलन के इस चरण में मुसलमानों की भागीदारी सुनिश्चित करने में उनकी भूमिका निर्णायक थी।

“अल-हिलाल” का प्रकाशन

आज़ाद एक सक्रिय पत्रकार थे। उन्होंने कई समाचार-पत्रों का प्रकाशन किया। इनमें सबसे प्रसिद्ध “अल-हिलाल” था। वैसे, सर्वप्रथम उन्होंने 1903 में एक मासिक पत्रिका निकाली, जिसका शीर्षक था “लिसान उस्-सिद्क” अर्थात सत्य की भाषा। इसमें आजाद ने सामाजिक सुधारों पर चर्चा की थी। मुस्लिम समाज में जो कुरीतियाँ व्याप्त थीं, उनकी उन्होंने आलोचना की । यद्यपि यह पत्रिका 10 अंको के प्रकाशन के बाद बंद हो गई, फिर भी मुस्लिम समाज पर इसके संदेश काफी प्रभावी रहे। __आजाद का सबसे महत्वपूर्ण समाचार-पत्र साप्ताहिक “अल-हिलाल” था। इसका प्रकाशन 1912 में कलकत्ता से आरंभ हुआ। यूरोप में युद्ध के बादल मँडरा रहे थे और ऑटोमन साम्राज्य का इससे प्रभावित होना स्वाभाविक था। उस समय अबुल कलाम पर सर्व-इस्लामवाद का प्रभाव बहुत गहरा था। ‘अल-हिलाल’ के पहले ही अंक के प्रथम पन्ने पर जमालुद्दीन अफगानी और मुहम्मद अब्दहु जैसे सर्व-इस्लामवादी विचारकों की तस्वीरें छपी थीं और इनके लिए सम्मानपूर्ण उपाधियों का उपयोग किया गया था। ____”अल-हिलाल” उर्दू पत्रकारिता के इतिहास में एक नया और गौरवशाली अध्याय था। इसमें पहली बार टाइप-सेट अक्षरों का प्रयोग हुआ था। उसके पहले हाथ से लिखी हुई प्रतियों को लीथो प्रेस के द्वारा छापा जाता था। इस कारण इनकी छपाई बहुत सुंदर नहीं हो पाती थी। “अल-हिलाल” में ही पहली बार तस्वीरों की छपाई के लिए ब्लॉक का प्रयोग किया गया, जिससे तस्वीरें साफ़ और आकर्षक लगती थीं। छपाई की विधि में यह एक नया प्रयोग था। यह यूरोपीय तकनीक थी, जिसकी जानकारी आजाद को मिस्र से प्रकाशित होनेवाले समाचार-पत्रों के माध्यम से प्राप्त हुई थी।

___ “अल-हिलाल” में आजाद ने इस्लामी जगत और भारतीय मुसलमानों की समस्याओं पर ध्यान आकर्षित किया। उन्होंने स्पष्ट किया कि ब्रिटिश साम्राज्यवाद सभी भारतवासियों के लिए हानिकारक है, चाहे वे मुसलमान हों या हिन्दू । इसलिए उन्हें एक साथ मिलकर ब्रिटिश शासन का विरोध करना चाहिए। आजाद का ओजस्वी संदेश बहुत लोकप्रिय हुआ। जल्द ही “अल-हिलाल” की 25,000 प्रतियाँ छपने लगीं। यह संख्या तब एक बड़ी संख्या थी। अनुमान किया जाता है कि इसके पाठकों की संख्या 1,00,000 से अधिक थी। “अल-हिलाल” की इस बढ़ती लोकप्रियता के फलस्वरूप सरकार ने 1914 में इसके विरुद्ध

कार्रवाई की। सितम्बर, 1913 के प्रेस ऐक्ट के अंतर्गत अखबार से दो हज़ार रुपये की जमानत माँगी गई। फिर अक्टूबर, 1914 में प्रकाशित अंकों को जब्त कर लिया गया। नवम्बर, 1914 में पुरानी जमानत जब्त करके 10,000/- की नई जमानत मांगी गई। विरोध स्वरूप आजाद ने अख़बार बंद कर दिया। लेकिन इस कम समय में भी इस समाचार-पत्र ने एक नया इतिहास रचा। उर्दू पत्रकारिता को इसके माध्यम से नया तेवर प्राप्त हुआ। राष्ट्रीय आंदोलन पर भी इसके दूरगामी प्रभाव पड़े। इससे उत्पन्न राजनीतिक जागरण राष्ट्रीय आंदोलन का एक ऐतिहासिक अध्याय है। सबसे बढ़कर आजाद ने इस अखबार के माध्यम से हिन्दुओं और मुसलमानों को एकजुट होकर ब्रिटिश सरकार की अन्यायपूर्ण नीतियों के विरोध के लिए तैयार किया और अलगाववादी राजनीति को कमजोर किया।

इसके बाद आजाद ने एक दूसरा अख़बार निकाला। इसका नाम था “अल-बिलाग”। यह कलकत्ता से नवंबर, 1915 में प्रकाशित हुआ। इसमें आजाद ने साहित्य, इतिहास, धर्म, और सामाजिक मद्दों पर चर्चा की। परन्त इस पर भी सरकार ने मार्च, 1916 में प्रतिबंध लगा दिया। इसी के बाद आज़ाद को बंगाल प्रांत से भारत सुरक्षा कानून (Defence of India Rules) के प्रावधान के अनुसार निष्कासित कर दिया गया। लगभग एक दशक बाद जून, 1927 में आजाद ने पुनः “अल-हिलाल” का प्रकाशन आरंभ किया। मगर 6 महीनों के अंदर ही सरकारी दमनचक्र के कारण 1 दिसम्बर, 1927 में यह पुनः बंद कर दिया गया।

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