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आजाद से अबुल कलाम का सफर | Part – 11

आजाद से अबुल कलाम का सफर | Part – 11

आजाद से अबुल कलाम का सफर | Part – 11

महात्मा गांधी की यादगार के संबंध में मौलाना आजाद का भाषण (नई दिल्ली, फरवरी 1948 ई.)

(महात्मा गांधी की निर्मम हत्या के कुछ ही दिनों के बाद फरवरी, 1948 में संविधान क्लब, नई दिल्ली में एक अधिवेशन हुआ था, जहाँ इस विषय पर विचार विमर्श किया गया कि गांधी जी की यादगार किस रूप में स्थापित की जाय। इस अधिवेशन की अध्यक्षता मौलाना आजाद ने की थी, यह उनका अध्यक्षीय भाषण

___ आज महात्मा गांधी के बाद न केवल भारत में, अपितु पूरे विश्व में उनकी यादगार विभिन्न रूप में स्थापित है। हाल ही में कांग्रेस कार्यकारिणी समिति ने भी छह सदस्यों पर आधारित एक समिति बनाई है, जो महात्मा गांधी की एक ऐसी यादगार प्रतिमा स्थापित करने पर विचार-विमर्श करेगी, जो उनके जीवन-दर्शन एवं उनके आदर्शों को दुनिया के सामने प्रकाशित कर दे। ___इसके अतिरिक्त अन्य प्रकार से भी इनकी सेवा के चर्चे, साहित्यिक स्मरण एवं उनके कारनामों को सुरक्षित किया जा रहा है, ताकि आने वाली पीढ़ी जब उनके जीवन का अध्ययन करे, तो उज्ज्वल हकीकत उनके सामने आ जाय। ___ ये सब कुछ है, लेकिन मैं जब भी चिंतन करता हूँ, तो एक चीज़ बार-बार मेरे सामने आती है और वह यह कि इस प्रकार जो कुछ भी किया जा रहा है, मुझे इसमें एक बड़ा भाग रिक्त नज़र आता है और यदि इसको नहीं भरा गया, तो एक

बड़ी कमी रह जायेगी। ____ आपको मालूम है कि महात्मा जी का जीवन विभिन्न प्रकार के कार्यों में व्यतीत हुआ है, लेकिन उनके जैसा व्यक्तित्व विश्व में कभी-कभी उभरा करता है जो विश्व की स्वनिर्मित हदबंदियों से ऊपर हुआ करता है।

मानव इतिहास के हर दौर में आप देखेंगे कि मनुष्य ने दुनिया में बहुत-सी हदबंदियाँ स्थापित की हैं। जैसे भौगोलिक हदबंदी-कहा जाता है कि यह यूरोप है, यह एशिया है, यह अरब है, यह भारत है… इत्यादि । धार्मिक हदबंदी- जैसे हम कहते, यह मुसलमान है, यह हिन्दू, यह ईसाई, यह सिख… इत्यादि। देश के आधार पर हदबंदी कहा जाता है, यह अंग्रेज है, यह इटालियन, यह भारतीय… इत्यादि । भाषायी हदबंदी-कहा जायेगा यह अमुक भाषा का है बोलने वाला है… इत्यादि। ऐसे ही रंग-भेद इत्यादि।

ये तमाम हदबंदियाँ हमारे जीवन की स्वाभाविक आवश्यकताएं हैं, किन्तु जब तक यह सृजनात्मक परिधि में रहती हैं, हमारे लिए बड़ा सहारा हैं। और जब यह विध्वंसक रूप धारण कर लेती है, तो मानवता को तबाह कर देने वाली और मिटा देने वाली बन जाया करती है।

विश्व के इतिहास में जब भी इन हदबंदियों को नकारात्मक रूप से प्रयोग में लाया जाता है, तब वही उद्देश्य जो इनके सहारे चमकते थे, मिट्टी में मिल जाते हैं। ___ उदाहरणस्वरूप, धार्मिक हदबंदी को लीजिए, सब जानते हैं कि धर्म दुनिया के सुधार के लिए आया है। प्यार, मोहब्बत, अमन व इंसाफ इत्यादि ऐसी चीजें हैं, जिनको हर धर्म मूल रूप से सही मानता है। किन्तु जब यही धार्मिक हदबंदी विध्वंसक रूप ले लेती हैं, तो हजारों खून-खराबा का कारण बन जाती है। विश्व के इतिहास में हजारों हत्याएँ इसी धर्म के नाम पर हुई हैं।

अपने ही माहौल को देखिए, आज हमारे चारों ओर जो कुछ हो चुका है, वह खुदा का नाम लेकर ही किया गया है। ऐसे ही भौगोलिक हदबंदियों को ही ले लीजिए। कुरआन की भाषा में यह रुकावटें इसलिए थीं कि तुम में आपस में पहचान हो सके। लेकिन यही हदबंदी जब विध्वंस के रूप में सामने आती है तो संसार में बड़ी तबाही का कारण बन जाती है। ____ यही हाल राष्ट्रीय हदबंदी का है, इसका उद्देश्य भी वही है, आपस की पहचान का ज़रिया। लेकिन यही कौमियत की हदबंदी, जो एक पहचान का जरिया थी, अपनी हदों से गुज़र जाती है, तो दुनिया में बड़ा खून-खराबा इसी राष्ट्रीय नफरत व लालच और गरूर व घमंड के नतीजे में हुआ है।

चूँकि दुनिया में बहुत-सी हदबंदियाँ हैं, जो हमारी ज़िन्दगी पर छा गई हैं,

और हम इन में ऐसे बँध गये हैं कि हम में बड़ी-से-बड़ी आत्मा ऊँचाई की बड़ी से बड़ी जगह पैदा कर सकती है, लेकिन इन सीमाओं के अन्दर-ही-अन्दर रह कर; इनके आगे क़दम रखने की इन में हिम्मत ही पैदा नहीं हो सकती। परन्तु जिस तरह प्रकृति एक विशेष ढंग पर चलती है, लेकिन कभी-कभी अपने रंग छोड़ देती है। ऐसे ही हम देखते हैं कि इतिहास के पन्नों पर कभी-कभी ऐसे विशिष्ट व्यक्ति उभरता है कि दुनिया की कोई हदबंदी भी उन्हें ऊँचाई तक पहुँचने से रोक नहीं सकती। धार्मिक हदबंदी इनकी आँखों को बंद नहीं कर सकती। कौमियत की हदबंदी इनके पाँव की जंजीर नहीं बन सकती और राष्ट्रीयता की हदबंदी इनके हाथों को पकड़ नहीं सकती। वे इन सीमाओं से बहुत ऊँचे और बुलंद होते हैं। ___जब ये विशिष्ट व्यक्ति इन सीमाओं की परिधि से ऊपर हो जाते हैं, तब आप देखेंगे कि इनकी आँखों में सच्चाई की किरण पैदा हो जाती है। इनकी दृष्टि में भेदभाव का एक कारण नहीं रहता। इनकी दृष्टि प्रत्येक ओर और प्रत्येक कोने पर एक समान पड़ती है। विश्व का सभी अच्छा-बुरा इन के सामने होता है। वह सबको एक ही नज़र से देखते और पहचानते हैं। इन्हें जहाँ कहीं सुन्दरता दिखाई पड़ती है, तो वे दौड़ते हैं कि ये हमारे लिए है। इन्हें जिस तरफ खूबी नजर आती है, वह उसको अपनाते हैं और कहते हैं कि यह हमारा अधिकार है। किन्तु आप याद रखिये, इतिहास में ऐसे विशिष्ट व्यक्ति बहुत ही कम हुआ करते हैं।

महात्मा गांधी जी की हस्ती विश्व इतिहास में उन हस्तियों में से एक थी। वे दुनिया की इन तमाम हदबंदियों से ऊपर थे और उनकी दृष्टि में हर धर्म और हर देश, हर नस्ल और हर गिरोह एक ही हैसियत रखता था और वह हर एक की अच्छाई को अपनाते और पसंद करते थे। _जहाँ तक मुझे याद है, मुझे उनका परिचय सबसे पहले 1908 ई. में हुआ, जब पिताश्री का देहान्त हुआ। बम्बई, ट्रॉन्सवाल इत्यादि में स्वर्गीय पिताश्री अपनी हैसियत रखते थे। उनके आस-पास के बहुत से अनुयायी व शुभचिंतक थे। उन दिनों गांधीजी उस क्षेत्र के हालात में दिलचस्पी ले रहे थे और ट्रॉन्सवाल कांग्रेस के कार्यक्रमों में सक्रिय थे। उस समय मुझे एक तार मिला, जिसके नीचे गांधीजी के हस्ताक्षर थे। उन्होंने इस तार द्वारा दिवंगत पिताश्री की मृत्यु पर शोक संवेदना व्यक्त की थी। इसके उपरान्त 1918 ई. तक मुझे उनसे पत्राचार एवं भेंट का मौका न मिला। __1918 ई. में जब मैं राँची जेल में नजरबन्द था, इन दिनों गांधी जी बिहार के दौरे के लिए आये और उन्होंने एक व्यक्ति के द्वारा मुझे जेल में संदेश भेजा कि मैं

बिहार आया हुआ हूँ, और तुम से मिलना चाहता हूँ | किन्तु गर्वनर, बिहार ने मुझे इसकी अनुमति नहीं दी। इसके बाद जब मैं राँची जेल से रिहा हुआ और एक कार्यक्रम में सम्मिलित होने के लिए 20 जनवरी, 1920 ई. को दिल्ली आया, तो स्वर्गीय हकीम अजमल खाँ साहब के निवास पर सबसे पहले मुझे गांधी जी से मिलने का अवसर प्राप्त हुआ। उस दिन से आज तक, जबकि 1948 ई. है, 28 वर्ष बीत चुके हैं, 28 वर्ष के ये दिन हम पर ऐसे गुज़रे हैं कि जैसे हम एक ही छत के नीचे रहे। ___बीते दिनों में उनसे कुछ मतभेद भी हुए ! अतः इस लड़ाई के ज़माने में मेरा और उनका जो मतभेद हुआ था, उसे आप भी जानते होंगे। काँग्रेस कार्यकारिणी समिति में मेरी ये राय थी, जिस पर सदस्यों का बहुमत था कि अगर ब्रिटेन यह मान ले कि युद्ध के बाद भारत को आज़ादी दे दी जायेगी, तो हम लड़ाई में शामिल हो सकते हैं। वे इसके घोर विरोधी थे, वे बिल्कुल दूसरी ओर जा रहे थे। वे कहते थे, हम ऐसी आज़ादी लेना ही नहीं चाहते, जो लड़ाई के साये में हमको मिले। इसलिए वे किसी तरह भी लड़ाई में सम्मिलित होने के लिए तैयार नहीं थे।

आपको ये भी मालूम है कि कांग्रेस कार्यकारिणी समिति के प्रस्ताव का ड्रॉफ्ट गांधी जी ही बनाया करते थे। अतः उस समय भी अपने रिजुलूशन का ड्रॉफ्ट बनवाने के लिए मैं और पंडित नेहरू गांधी जी के पास गये। और इन्होंने असहमति के बावजूद इस प्रस्ताव का ड्रॉफ्ट बना दिया।

__यूँ इस लम्बी अवधि में बहुत से अवसर आये कि हम में और उन में असहमति हुई और खींचतान तक स्थिति पहुँची। उन्होंने और हमने अपनी-अपनी जगह इस को महसूस भी किया। लेकिन इस पूरी ज़िन्दगी में कोई ऐसा समय नहीं आया कि हमारे दिलों का रुख फिर गया हो। ऐसी-ऐसी असहमति के बावजूद उन की महानता की जो रस्सी हमारी गर्दनों में पड़ी हुई थी, हम कभी उससे बाहर न हो सके।

इस मौके पर आप से ये कह दूँ कि मेरी तबीयत में एक तरह की कमी और खामी है। वह यह कि जब तक किसी की कोई विशेषता मेरे सामने न आ जाये, जो मेरे दिमाग पर छा जाये, और मेरी गर्दन को दबा ले, उस समय तक वह मुझे अपने सामने झुका नहीं सकता। मेरी गर्दन की रगें सख्त हैं। मेरे सामने जब कोई दिमाग आता है, तो पहले मेरा जेहन उस के विपरीत ही जाना चाहता है, यहाँ तक कि वह मेरे दिमाग को अपनी मज़बूत गिफ़रत में ले ले। अतः जब मैं पहली बार महात्मा गांधी से मिला, उस समय मैं उनका अनुयायी नहीं था। मेरी आँखों पर विश्वास की पट्टी न थी, जो इन्सान की आँखों को बन्द कर दिया

करती है। लेकिन उस के बाद उनकी हर चीज़ ने उन की प्रतिष्ठा को मेरे दिल में उतार दिया और जो दिन बीता, मेरा विश्वास उनके बारे में बढ़ता ही चला गया। हम दो आदमियों को उन से बेइन्तहा लगाव था और हमें बहुत लम्बा समय मिला। वह एक खुली हुई किताब थे, जिसका हर पन्ना खुला हुआ, हर लाइन चमकदार, हर शब्द धुला हुआ और हर अक्षर चमकता हुआ था।

आज सम्पर्ण विश्व में शायद उन्हीं की जिन्दगी ऐसी थी जिसका एक अक्षर भी छुपा हुआ नहीं था। यह मानवता की प्रतिष्ठा के लिए सबसे बड़ी कसौटी है और इस अवस्था पर उतरने वाले समस्त मानव-इतिहास में केवल कछ ही व्यक्ति हए हैं, जिन्हें आप अपनी उँगलियों पर गिन सकते हैं जिनको तमाम दुनिया की हदबंदियों ने उलझाने की कोशिश की, किन्तु वह उलझ न सके। तमाम बन्दिशों ने उनका दामन पकड़ना चाहा, मगर पकड़ न सकीं। मेरे नज़दीक गांधी जी की सबसे बड़ी प्रतिष्ठा यही है। ___ ये न था कि महात्मा गांधी हिन्दू न थे, वे बेशक हिन्दू थे। लेकिन उन्होंने हिन्दू धर्म व सोच की एक नया व्याख्या और एक नया दृष्टिकोण बनाया था, जो तमाम हदबंदियों पर छा गयी थी। और वह एक ऐसी जगह बन गई कि न वहाँ भूगोल और राष्ट्र की लकीरें चल सकती हैं और न दूसरी हदबंदियों की दीवारें कायम रह सकती हैं। वह ऊँचाई है कि अगर हमारा दिमाग वहाँ तक पहुँच सके. तो इससे बड़ी कोई खूबी नहीं है। _____ हिन्दू धर्म का पुराना चिंतन और नक्शा, जो हमारे सामने आता है, उस में बहुत अधिक फैलाव था, और जहाँ तक मेरा अध्ययन है, संसार के तमाम धर्मों में नज़रिया-ए-तौहिद को जिस धर्म ने सबसे ज्यादा नज़दीक से देखा है, वह हिन्दू धर्म है। मेरे पास उसके बहुत से तथ्य और साक्ष्य मौजूद हैं, लेकिन आज हिन्दू धर्म की वह शक्ल बाकी नहीं है और उस के बहुत से स्थान खाली हो चुके हैं। हिन्दू धर्म ने प्रारम्भिक दौर में यूनानियों को वह दर्जा दिया था, जो एक ब्राह्मण का होता है, सिर्फ इस लिए कि यूनान शिक्षा-प्रेमी राष्ट्र था। किन्तु दूसरी जगह यह है कि हिन्दू सोच गिरने लगी। छुआ-छूत और संकीर्ण सोच पैदा हो गई, तब ही से हिन्दू धर्म अपनी ऊँची सतह से गिर गया। ___ गांधीजी हिन्दू थे और हिन्दू ही रहे, लेकिन उन्होंने हिन्दू धर्म की इतनी ऊँची जगह बनाई थी कि जब वे उस ऊँचाई पर से देखते थे, तो दुनिया के तमाम झगड़े उनको मिटे हुए नजर आते थे। उनके सामने एक खुली हुई सच्चाई थी, जो किसी एक की परम्परा नहीं है, बल्कि सूर्य और उसकी किरणों की तरह सब के लिए है।

बस हमें गांधी जी की महानता छोटी चीजों में नहीं ढूँढनी चाहिए। बल्कि

पर्दा उठा कर देखना चाहिए, तब हकीकत का चेहरा साफ़ नज़र आयेगा। वह इतनी ऊँचाई पर थे कि विश्व की कोई हदबंदी उनका रास्ता रोक नहीं सकी। ____ आज हम उनकी कोई भी यादगार मूरत बनायें, वह अपूर्ण होगी। जब तक वह उनकी महानता को ज़ाहिर न करे। इसलिए मुझे आपसे कहना है कि गांधीजी की यादगार इस प्रकार से होनी चाहिए, जो महात्मा गांधी जी की इस महानता को उजागर करे। आने वाली पीढ़ियों को अपनी खामोश जबान से बता दे कि महात्मा जी का मिशन और जीने का तरीका यह था, जो दुनिया भर के दर्शानार्थी को अपनी मूक भाषा से भी गांधी जी की महानता और प्रतिष्ठा का इतिहास बता सके।

आप कितने भी स्मारक बना लें, तब भी वे बेकार हैं, जब तक उनकी उँगली इस वैश्विक सच्चाई की ओर न उठे, जो गांधी जी की दृष्टि में थी।

नारी-शिक्षा (हमारी कौम में क्योंकर हो सकती है?)

नारी-शिक्षा के विषय में रामपुर कांफ्रेंस में जो रिजोलूशन प्रस्तुत हुआ और जिस पर नवाब एमादुल मुल्क ने बड़ा सरगर्म भाषण दिया, ये उसी का प्रभाव है कि कौम को इस आवश्यक बिन्दु की ओर अत्यधिक रुझान हो गया और इसी को एक बहुत आवश्यक कार्य की तरह मिस्टर अमीर अली के हमज़बान होकर यह मान लिया कि कौम का सँवरना-बिगड़ना नारियों की शिक्षा होने, न होने पर निर्भर है। निःसंदेह यह रुझान भविष्य की प्रगति की बुनियाद है और साबित करता है कि कौम को अब अपनी आवश्यकताओं का एहसास हो गया है। यही वह बात है, जो कौमी जीवन का असली राज़ है और यही वह राज़ (भेद) है, जिससे कौम गिरते-गिरते सँभल जाती है। लेकिन इसके बावजूद इस रुझान को कैसे अमल में लाने का आज तक जो प्रयास किया गया है, अगर कौम के बड़े लोग मेरी गुस्ताखी को क्षमा करें, तो हम पूरे जोर के साथ कह सकते हैं कि वह उपाय केवल गलती ही नहीं, बल्कि एक हद तक कौम के लिए घातक भी है, और यद्यपि उसका इस समय एहसास न हो, लेकिन अमल के बाद निःसंदेह खेद होगा। इसलिए मुनासिब है कि अभी से सोच-समझ लिया जाए।

नारी-शिक्षा के विषय में इस समय तक जितनी भी बातें कही गई हैं, उनका सारांश यह है कि प्राइवेट पाठशालाएँ जारी की जाएँ या हर परिवार के लिए अलग-अलग मकतब बना दिये जाएँ, जहाँ उस खानदान की लड़कियाँ शिक्षा प्राप्त करें। मिस्टर मॉरीसन भी इससे सहमत हैं। मिस्टर शौकत अली का कथन है कि एक मदरसा कायम करके पहले शिक्षिकाओं को तालीम दी जाय, जो औसत दर्जे के माहाना वितन) पर पढ़ाएँ। हम इन तमाम बातों और विचारों को अत्यन्त शौक़ के साथ देखते हैं और भारत की अबला नारी-जाति पर रोते हैं

कि उनकी शिक्षा की ओर अगर कौम का रुझान भी होता है, तो उसका परिणाम होने, या न होने के बराबर नजर आता है। हम पूछते हैं कि यह सब कुछ सही है लेकिन इस किस्म की शिक्षा से महिलाओं को कोई लाभ न होगा। इस शिक्षा से जिस कदर काबिलियत नारियों को हासिल होगी, उससे कहीं ज्यादा अच्छी काबिलियत पुराने खानदानों की नारियों में मौजूद है। खुद हमारे परिवार में हर लड़की के लिए उर्दू, फारसी और दीनियात का पढ़ना आवश्यक है। परन्तु इससे न वह लाभ प्राप्त होता है जिसकी हमें लालसा है, न उनके दिमाग रौशन होते हैं, न उनकी औलाद पर प्रभाव पड़ता है, न वह शिक्षित पतियों पर कोई प्रभाव डाल सकती हैं और न वह उनकी कोई मददगार हो सकती हैं। बल्कि अधूरी शिक्षा के कारण आजादी का ख्याल, (जो हर मनुष्य में स्वाभाविक रूप से विद्यमान है और जिसे हिन्दुस्तान में बाहरी प्रभाव से दबा दिया गया है), पैदा हो जाता है और फिर जब समाज में जायज़ आजादी की कोई सूरत नहीं मिलती, तो वह नाजायज़ तरीके से आजादी चाहती हैं और ऐसे वाकयात हो जाते हैं, जिन्हें नारी-शिक्षा के विरुद्ध परिणाम बतलाते हैं। हालाँकि उसका असली कारण यह है कि उनको अधूरी शिक्षा दी जाती है और गुलामी से मुक्ति नहीं मिलती। बुलबुल को बाग की बहार की एक झलक दिखाकर फिर पिंजड़े में बंद कर देना ठीक एक नारी को शिक्षा देकर उस आजादी से, जो प्रकृति ने उन्हें दी है, उससे लाभान्वित न करना है।

हम साफ़-साफ़ कह देते हैं और यह एक पूरा फैसला समझ लो । माने हुए उसूल की तरह मान लो कि जब तक “मुतआरिफ़ परदा” (तत्प्रचलित कठोर परदा) हिन्दुस्तान से न उठेगा, तब तक महिलाओं को जायज़ आज़ादी और वह आजादी जिसका इस्लाम हुक्म देता है, नहीं मिलेगी। गुलामी में रखकर और परदे में रहकर तालीम देना न केवल बेकार, बल्कि हानिकारक और अत्यन्त हानिकारक है। इसके एक नहीं, बीसों उदाहरण मिल जाएँगे कि इस प्रकार की शिक्षा बुरे परिणाम पैदा करती है, या कम-से-कम ऐसी तालीम से कोई लाभदायक परिणाम नहीं निकलता। मनुष्य स्वाभाविक रूप से स्वतंत्र है। यह आजादी उसके हर गैर इरादी कार्यों व हरकत से साबित होती है। यद्यपि पुराने जमाने में इस आजादी को समझने में बड़ी गलतियाँ हुईं और इन्सान की आजादी में अपवाद की गुंजाइश रखी गई। इस ख्याल से गुलामी की नापाक रस्म पैदा हुई। यूरोप एक मुद्दत तक इसमें मुब्तला रहा, लेकिन जब शिक्षा की रौशनी संपूर्ण जाहेलाना तारीकियों पर गालिब आई, तो मानव की फितरी आजादी जाहिर हुई और कुल यूरोपीय दार्शनिकों ने मानव को बिना अपवाद आजाद मान लिया। मगर भारत-भूमि ने, जिसके सिंहासन पर कभी गुलाम भी

बादशाहत कर चुके हैं, वैसी आज़ादी को बर्बाद कर दिया। महिलाओं को हब्शी गुलामों के समान बना दिया और आज़ादी पुरुषों के लिए खास कर दी (यद्यपि भारत के पुरुष भी ठीक से आज़ाद नहीं हैं) क्या इस अंग्रेज़ शासनकाल में, क्या नये भारत में फिर उस गुलामी को कायम रखना चाहते हो? महिलाओं की गुलामी एक जाहेलाना काम है। क्या अज्ञानता और ज्ञान को जमा करना चाहते हो? महिलाएँ, गुलाम भी बनी रहें और विद्वान भी हो जायें। जब तक महिलाओं को आज़ादी न दी जायेगी, तब तक तालीम लाभदायक नहीं हो सकती और न आमतौर से तालीम का प्रसार हो सकता है।

कुछ लोग हमारे इस कथन के जवाब में कहते हैं कि जब भारतीय महिलाओं को आजादी देना नहीं पसंद करते, तो क्या उन्हें कम-से-कम शिक्षा से भी महरूम रखा जाय? लेकिन हम नहीं समझते कि यह जवाब किस बिना पर दिया जाता है। यह तो स्पष्ट है कि वे आज़ादी देना पसंद नहीं करते, लेकिन जब कौम में सुधार करना हमारा काम है, तो हम अपने सुधारों पर कौम को लाएँगे, या स्वयं उनकी अज्ञानता के विचारों पर चलेंगे? ____ वह जमाना हमें नहीं भूलना चाहिए, जब क़ौम अंग्रेजी शिक्षा को पसंद नहीं करती थी। अंग्रेजी पढ़ने वालों के लिए “उसने कुफ्र (अधर्म) किया” और अंग्रेजी पोशाक धारण करनेवालों के लिए “तुमने जिस कौम की नकल की, तम उन्ही में शामिल हो” के भरे हुए तमंचे तैयार थे। क्या हमें कौम ही के विचारों पर चल कर मुहम्मेडन कॉलेज के स्थान पर मदरसा अरबिया स्थापित करना था?

__ सर सैय्यद का समझना था कि जब क़ौम अंग्रेज़ी पर राजी नहीं होती, तो कम-से-कम अरबी से क्यों महरूम रखी जाए? लेकिन हम तमाम मामला इसके विपरीत देखते हैं। अंग्रेजी का पढ़ना मुसलमानों के लिए द्वितीय दर्जे का ही रहा है और अंग्रेजी पोशाक 19वीं शताब्दी के हर युवक के लिए अनिवार्य है। इस समय अगर कौम नारी-स्वतंत्रता पर राजी नहीं होती, तो कुछ दिनों में हमारे प्रयासों से सहमत हो जाएगी। हमारे कौम की जेहालत पर सहमत होना और परदे के साथ शिक्षा देना यह मायने रखता है कि हम कौम को परदे का और अभ्यस्त बना रहे हैं और इसलिए अब हमें कभी महिलाओं की आज़ादी का स्वप्न दिखाई नहीं देता। ____ अगर हमें नारी-शिक्षा की सचमुच आवश्यकता है, यह सत्य है कि शिक्षित परिवार अशिक्षित माताओं से जन्म नहीं ले सकता। अगर यह ठीक है कि पुरुषों का नेक होना महिलाओं के नेक होने पर निर्भर है, तो पहले इसकी कोशिश करो कि यह परदा जो हमारी कौम के लिए एक बड़ी रुकावट है, यह महिलाओं की गुलामी जिसने हमारी महिलाओं को किसी इल्मी तरक्की के लायक नहीं रखा है,

जिससे उनकी बुद्धि उनके तंत्रिका तंत्र बिल्कुल खराब हो गये हैं, उठा दिया जाए और वह परदा कायम किया जाये जिसका असली जौहर हुस्ने अखलाक है (और जो शिक्षा के बिना उत्पन्न नहीं हो सकता), जो महिला की इज्जत की ऐसी सुरक्षा करता है जिसे शक्तिशाली से शक्तिशाली हाथ और बड़ा-से-बड़ा बुरा ख्याल हिला-डुला नहीं सकता। उसके बाद शिक्षा के आभूषण से महिलाओं को सजाओ, सँवारो और उनमें यह योग्यता पैदा करो कि वे अपनी संतान को स्वयं उत्तम शिक्षा-दीक्षा दे सकें, बचपन से ही उसमें हुस्ने अखलाक पैदा करने की कोशिश करें। इस कोशिश के बाद जो नस्ल भारत में दिखेगी, वह निःसंदेह सम्पूर्ण रूप से एक शिक्षित जाति के लिए, गौरवान्वित राष्ट्र के लिए, वैभवशाली होगी, वरन् इस प्रकार की शिक्षा से जिसका अभी प्रयास किया जा रहा है, कोई परिणाम नहीं निकल सकता, सिवाय इसके कि इस प्रयास में हमारा समय नष्ट हो और कुछ करने के बाद अफ़सोस हो।

मुझ तक केवल (बात) पहुँचाने की जिम्मेदारी है!

(मौलाना अबुल कलाम आज़ाद का यह लेख “तालीम-ए-निस्वाँ”, (मासिक

पत्रिका, अलीगढ़) के नवम्बर 1903 अंक में प्रकाशित हुआ था।)

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