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आजाद से अबुल कलाम का सफर | Part – 4

आजाद से अबुल कलाम का सफर 

आजाद से अबुल कलाम का सफर

गांधीजी और मौलाना आजाद

1919 का वर्ष विश्व एवं भारत के इतिहास में बड़ा महत्वपूर्ण था। इसी वर्ष गांधीजी ने रॉलेट ऐक्ट के खिलाफ सत्याग्रह आरंभ किया। रॉलेट ऐक्ट “काला कानून” भी कहलाता है, क्योंकि इसके द्वारा राष्ट्रवादियों के दमन के लिये कठोर कानून की व्यवस्था थी, जिसे अदालत में चुनौती भी नहीं दी जा सकती थी। कहते हैं, इसमें “न वकील, न अपील, न दलील” की गुंजाइश थी। इसी सत्याग्रह के क्रम में अमृतसर में एक अंग्रेज़ फौजी अधिकारी, ब्रिगेडियर-जनरल डायर ने जलियाँवाला बाग में जन-सभा में भाग ले रहे लोगों पर क्रूरतापूर्ण ढंग से गोलियाँ चलाने का आदेश दिया। लगभग 1,000 लोग मारे गए और 1,500 घायल हुये। इसके बाद भी सरकारी दमन-चक्र चलता रहा। सारा देश विचलित हो उठा। सरकार की दमनकारी नीति के विरोध में गांधीजी ने “कैसर-ए-हिन्द” और रबीन्द्रनाथ ठाकुर ने ‘सर’ की सरकारी उपाधियाँ लौटा दी।

गांधीजी के प्रति आज़ाद के मन में बड़ी श्रद्धा थी। 1908 ई. में जब आज़ाद के पिता की मृत्यु हुई थी तो गांधीजी ने तार भेजकर अपना शोक जताया था और उनसे सहानुभूति व्यक्त की थी। 1918 ई. में जब आज़ाद राँची में नज़रबंद थे और गांधीजी चम्पारण सत्याग्रह के क्रम में गवर्नर से मिलने राँची गए थे, तो वहाँ उन्होंने आज़ाद से मिलना चाहा, मगर उन्हें अनुमति नहीं मिली। 1920 ई. में दोनों पहली बार मिले, और यहाँ से एक नया संबंध आरंभ हुआ। गांधीजी के व्यक्तित्व और विचारों का आज़ाद पर गहरा प्रभाव पड़ा और यह जीवन-पर्यन्त बना रहा।

सत्याग्रही आज़ाद

1921 में गांधीजी ने असहयोग आंदोलन आरंभ किया था। आज़ाद ने इसमें सक्रिय भूमिका निभाई थी। इस आंदोलन के तीन मुख्य उद्देश्य थे। जलियाँवाला हत्याकांड से प्रभावित लोगों को इंसाफ दिलाना, हिन्दू-मुस्लिम एकता को बनाए रखना और विदेशी वस्त्रों एवं शराब का बहिष्कार करना। इस आंदोलन का माध्यम शांतिपूर्ण सत्याग्रह एवं अहिंसात्मक विरोध था। इसके माध्यम से जुलूस, प्रदर्शन, सभाएँ, हड़ताल आदि का रास्ता अपनाया गया। मगर इसकी सबसे महत्वपूर्ण विशेषता थी – सरकार का बहिष्कार । सरकारी स्कूलों और कॉलेजों से छात्रों ने नाम कटा लिए, सरकारी आयोजनों में भाग नहीं लिया गया, सरकारी उपाधियों को त्याग दिया गया, विधायिका के अनेक सदस्यों ने त्याग-पत्र दिया। वकीलों ने अदालतों का बहिष्कार किया और विदेशी वस्तुओं विशेषकर वस्त्रों का भी बहिष्कार हुआ। यह गांधीजी के नेतृत्व में पहला विशाल जन-आंदोलन था। लगभग सभी वर्गों ने देश के एक बड़े भाग में अंग्रेजों की सरकार को बहुत हद तक निष्क्रिय कर दिया था। लेकिन इसी बीच 1922 में एक हिंसात्मक घटना घटी। चौरी-चौरा नामक स्थान पर सरकारी दमनचक्र से तंग आकर कुछ सत्याग्रहियों ने हिंसा का रास्ता अपनाया। गांधीजी अपने आदर्शों को इस तरह टूटता हुआ नहीं देख सकते थे। अतः उन्होंने आंदोलन समाप्त करने की घोषणा कर दी।

“फरवरी, 1922 में एक सत्याग्रही के रूप में आज़ाद ने कलकत्ता की अदालत में अपना बयान दिया था. जिसमें उन्होंने ब्रिटिश सरकार को क्रूर एवं दमनात्मक सत्ता कहा था और घोषणा की थी कि उनका राष्ट्रीय, धार्मिक और मानवीय दायित्व है कि वे अपने देश और अपने लोगों को इस (सत्ता) से मुक्ति दिलाएँ। यही उनका “कौले फैसल” या “निर्णायक कथन” है। उन्होंने यह भी कहा कि आजादी के बीज तब ही प्रस्फुटित होते हैं, जब उनको हिंसा और दमन से सींचा जाता है और सरकार ने यही काम शुरू कर दिया है। इस निर्भीक वक्तव्य की भूरि-भूरि प्रशंसा गांधीजी ने अपनी पत्रिका Young India में की थी।”

 

1930 में जब गांधीजी ने नमक सत्याग्रह आरंभ किया, तो आज़ाद ने भी इसमें भाग लिया। गांधीजी की डाँडी यात्रा के क्रम में कई स्थानों से सत्याग्रही उनके साथ जुड़ते गए। आजाद ने इस सत्याग्रह में मुसलमानों की भागीदारी सुनिश्चित की। उनके ही प्रयास से पंजाब और पश्चिमोत्तर प्रांतों के मुसलमानों ने बड़ी संख्या में इस सत्याग्रह में भाग लिया। इस कारण वे जेल भी गए। 1931 में जब गांधीजी और वायसराय लॉर्ड इर्विन के बीच समझौता हुआ, तब आजाद भी अन्य राजनीतिक बंदियों के साथ रिहा किये गए। इसके बाद भी मौलाना आजाद कई बार जेल भेजे गए।

1932 में द्वितीय गोलमेज़ सम्मेलन के विफल होने के बाद गांधीजी ने सत्याग्रह पुनः आरंभ कर दिया। इस चरण में सबसे उल्लेखनीय घटना थी घरसाना सत्याग्रह | धरसाना नगर गुजरात में स्थित है और यहाँ नमक बनाने का सरकारी कारखाना था। सत्याग्रहियों का उद्देश्य था कि इस कारखाने पर कब्जा कर लिया जाए, मगर पूर्णतः अहिंसात्मक ढंग से। इसकी पूर्व सूचना भी दे दी गई थी। अतः सरकार ने पुलिस दल-बल की पूरी व्यवस्था कर रखी थी। इस सत्याग्रह का नेतृत्व अब्बास तैय्यबजी और उनके साथ कस्तूरबा जी ने किया। उन्हें गिरफ्तार कर तीन महीने की सजा दी गई। इसके बाद मौलाना आजाद और सरोजिनी नायडू ने नेतृत्व सँभाला। धरसाना सत्याग्रह विश्व इतिहास की एक अनोखी घटना थी। ऐसा दृश्य न पहले देखा गया, न कभी बाद में ही। हजारों की संख्या में निहत्थे सत्याग्रही जत्था बना-बना कर कारखाने में प्रवेश करने की कोशिश करते रहे। हर जत्थे पर पुलिस द्वारा निर्मम ढंग से लाठी का प्रहार हुआ। सिर फटे, हाथ टूटे, कराहें गूंजी, मगर किसी सत्याग्रही ने विरोध नहीं किया। यहाँ तक कि अपने ऊपर बरसने वाली लाठियों को रोकने के लिए भी हाथ नहीं उठाया। घायलों को दूसरे सत्याग्रही हटा कर पास की झोंपड़ी में ले जाते थे, ताकि उनका प्रारंभिक उपचार किया जा सके और दूसरे सत्याग्रही इनकी जगह धरने में शामिल हो जाते थे। ____एक अमेरिकी पत्रकार वेब मिलर ने इस पूरी घटना का समाचार, सरकार के विरोध के बावजूद, प्रकाशित किया। विश्व भर में 1,350 समाचार-पत्रों में यह खबर छपी। अमेरिकी सिनेट में भी इस पर चर्चा हुई। ___ सरकारी हिंसा पर गांधीजी की अहिंसा की, दमन पर सत्याग्रह की, यह अनूठी विजय थी। ब्रिटिश सरकार की इससे बड़ी नैतिक हार शायद ही कभी हुई थी।

स्वराज से पूर्ण स्वराज तक

“स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और

मैं इसे प्राप्त करके रहूँगा”

यह नारा बाल गंगाधर तिलक ने तब दिया था, जब आजाद ने राजनीति में भाग लेना आरंभ नहीं किया था। स्वराज का मतलब था “अपना शासन”। राष्ट्रवादियों की यह माँग थी कि भारतीयों को अपने देश का शासन चलाने में भागीदारी मिलनी चाहिए। अंग्रेज़ सरकार इस विचार की विरोधी थी।

उस समय प्रशासन में भारतीयों की भूमिका केवल इतनी थी कि वे विधायिका के सदस्य बन सकते थे। मगर शासन चलाने में उनको शामिल नहीं किया गया था। समय के साथ ‘स्वराज’ की माँग मजबूत होती गई। वर्ष 1906 में गोपाल कृष्ण गोखले ने कांग्रेस के अधिवेशन में स्वराज की माँग को प्रस्तुत किया। फिर वर्ष 1916 में होमरुल लीग की स्थापना भारत में हुई। इसमें तिलक एवं श्रीमती एनी बेसेंट की भूमिका भी महत्त्वपूर्ण रही। स्वराज और होमरुल में कोई व्यापक अंतर नहीं था। दोनों ही भारत में स्वशासन का समर्थन कर रहे थे, मगर अंग्रेजों की सरकार इस माँग के प्रति उदासीन थी।

जब गांधीजी ने वर्ष 1921-22 में असहयोग आंदोलन आरंभ किया, तो इसके उद्देश्यों में स्वराज की माँग भी शामिल थी। गांधीजी के नेतृत्व में यह पहला जन-आंदोलन था, जिसमें आजाद ने भाग लिया। वर्ष 1922 में गांधीजी ने आंदोलन वापस ले लिया, क्योंकि उत्तर प्रदेश (उस समय यह United Province या संयुक्त प्रान्त कहलाता था) के गोरखपुर जिला में चौरी-चौरा में एक उग्र भीड़ ने पुलिस दमन के विरोध में एक थाना में आग लगा दी थी। इस घटना में कई सिपाही मारे गये। गांधीजी ने इस हिंसा की आलोचना की। आंदोलन भी स्थगित कर दिया।

गांधीजी के इस निर्णय से कांग्रेस के कई नेता सहमत नहीं थे। मगर आजाद पूरी तरह उनके साथ थे। कुछ प्रमुख नेताओं, मोतीलाल नेहरू और चित्तरंजन दास, ने वर्ष 1923 में एक अलग दल का गठन कर लिया। यह नया दल स्वराज दल था। इसके सदस्यों ने विधायिका के बहिष्कार का विचार त्याग कर 1923 में होने वाले चुनावों में भाग लिया।

उस समय तक मौलाना आज़ाद कांग्रेस में अपना स्थान बना चुके थे। वर्ष 1923 में वे पहली बार भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष बने। इस पद पर आसीन होने वाले वे सबसे कम आयु के व्यक्ति थे। गांधीजी के नेतृत्व में आज़ाद की पूरी आस्था बनी रही। अतः जब वर्ष 1926 में, गुवाहाटी में कांग्रेस के अधिवेशन में गांधीजी ने पूर्ण स्वराज की मांग उठाई, तो आजाद ने इसका पुरजोर समर्थन किया। ____ मौलाना आजाद ने कांग्रेस और स्वराज दल के बीच ताल-मेल बनाने का महत्वपूर्ण काम किया। वर्ष 1929 में मुस्लिम नेशनलिस्ट पार्टी के अध्यक्ष के रूप में वे मुसलमानों को कांग्रेस से जोड़ने में सफल रहे। मुस्लिम लीग की सांप्रदायिक राजनीति का उन्होंने विरोध किया और मुसलमानों को इससे अलग रहने का संदेश दिया।

____ वर्ष 1929 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन पंडित जवाहर लाल नेहरू की अध्यक्षता में लाहौर में हुआ, जिसमें पूर्ण स्वराज्य की माँग प्रस्तुत की गई। इसका अर्थ था कि भारत को आत्मशासी राज्य माना जाए, इंग्लैण्ड की सत्ता मात्र औपचारिक रहे और वास्तविक शक्तियाँ भारतीयों के हाथ में रहें। यह व्यवस्था डोमीनियन स्टेटस (Dominion Status) कहलाती थी। ऐसी व्यवस्था को ब्रिटिश सरकार ने कुछ अन्य देशों (आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैण्ड) में लागू किया था, मगर भारत में इसे लागू नहीं करना चाहती थी। 31 दिसम्बर, 1929 को रावी नदी के किनारे पंडित जवाहर लाल नेहरू ने तिरंगा झंडा लहराया। 26 जनवरी, 1930 को सारे देश में “स्वतंत्रता दिवस” मनाया गया। इसी घटना की याद में स्वतंत्र भारत का संविधान 26 जनवरी, 1950 को लागू किया गया, तथा हम हर वर्ष 26 जनवरी, को “गणतंत्र दिवस” मनाते हैं।

साइमन कमीशन का बहिष्कार

साइमन कमीशन का आगमन भारत में 1928 में हुआ, मगर राष्ट्रवादियों ने इसका बहिष्कार किया। मौलाना आजाद भी बहिष्कार के पुरजोर समर्थक रहे। इस घटना को समझने के लिये इसकी पृष्ठभूमि को जानना आवश्यक है।

____भारत में ब्रिटिश शासन काल में कई बार प्रशासन संबंधी कानून पारित किये गये। इनके माध्यम से संवैधानिक सुधार लागू किए गए और भारतीयों को शासन से जोड़ने के उपाय किए गए। आरंभिक चरण में जो विधान पारित हुए, वे Indian Council Act के नाम से जाने जाते हैं। इनका क्रम 1871, 1892 और 1909 है। इनमें मुख्य रूप से विधायिका में भारतीयों के प्रतिनिधित्व को बढ़ाने और विधायिका के कार्यों में उनकी भूमिका और शक्ति में वृद्धि के प्रयास किये गये थे। परन्तु भारतीयों को कार्यपालिका (Executive) से संबंधित शक्तियाँ प्रदान नहीं की गई थीं।

___ अगले चरण में दो विधान बनाये गये। इन्हें Government of India Act कहते हैं। इनका क्रम 1919 एवं 1935 है। इनके माध्यम से पहली बार भारतीयों को कार्यपालक शक्तियाँ भी प्राप्त हुई। 1919 के विधान में भारतीयों की स्वशासन अथवा “स्वराज” की माँग को आांशिक रूप से माना गया। इसमें व्यवस्था की गई कि भारत में ब्रिटिश सरकार के अधीन प्रांतों में स्वशासन लाग किया जाए। प्रशासन से संबंधित विभागों को दो अलग-अलग नाम दिये गए: आरक्षित” और “हस्तांतरित”। महत्वपूर्ण विषय जैसे वित्त, प्रशासन आदि आरक्षित” श्रेणी में थे, जिनको ब्रिटिश गवर्नर द्वारा अधिकारियों की सहायता से संचालित किया जाता था। हस्तांतरित विषयों में शिक्षा, स्वास्थ्य, स्थानीय स्वशासन जैसे विषय आते थे। इन पर भारतीय मंत्रियों का नियंत्रण था।

ब्रिटिश अधिकारियों ने इस विधान के द्वारा स्वराज की माँग को संतुष्ट करना चाहा। मगर राष्ट्रवादी इससे संतुष्ट नहीं हुए। इस विधान में सुधार के लिए और नये प्रस्तावों पर विचार करने के लिए, एक आयोग का गठन किया गाया। इसके अध्यक्ष थे सर जॉन साइमन। इन्हीं के नाम पर यह आयोग साइमन कमीशन कहलाया।

भारत के राजनीतिक वातावरण में 1928 तक एक नई ऊर्जा आ गई थी। जब साइमन कमीशन का गठन हुआ, तब यह उम्मीद जगी थी कि इसके द्वारा सवैधानिक सुधार की अनुशंसा की जायेगी। पर जब इसमें किसी भारतीय को

सदस्यता नहीं मिली, तब इसका खोखलापन सामने आया। साथ ही, ब्रिटिश सरकार के प्रति अविश्वास की भावना बढ़ी। साइमन कमीशन के बहिष्कार का निर्णय कांग्रेस ने लिया। इस आंदोलन में मौलाना आज़ाद ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और पंजाब तथा सीमांत क्षेत्र में मुसलमानों को इसमें भाग लेने के लिए प्रेरित किया।

कांग्रेस ने अन्य दलों के साथ मिलकर एक वैकल्पिक कमीशन का गठन मोतीलाल नेहरू के नेतृत्व में किया। इसे विशेष रूप से भारतीयों के विचार को जानने एवं संवैधानिक सुधार के दृष्टिकोण से ही गठित किया गया था। मौलाना आजाद की सोच एवं सहमति कांग्रेस के लिए महत्वपूर्ण थी। जब मौलाना आज़ाद के द्वारा भी नेहरू रिपोर्ट को मंजूर किया गया, तब मुस्लिम लीग का वैकल्पिक प्रस्ताव प्रभावहीन हो गया। मौलाना आजाद ने धर्म के आधार पर पृथक निर्वाचन की प्रक्रिया का भी सदैव खंडन किया। एक धर्म-निरपेक्ष राष्ट्र की नींव को मजबूत करने में उनका योगदान सराहनीय रहा।

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