Skip to content

मैं मजदूर हूं ::  भगवतशरण उपाध्याय

मैं मजदूर हूं ::  भगवतशरण उपाध्याय

मैं मजदूर हूं ::  भगवतशरण उपाध्याय

 

भारतीय संस्कृति के सुप्रसिद्ध व्याख्या कार और भारतीय इतिहास के गैर इतिहासिकार विचारक के रूप में अपनी धाक जमाने वाले लेखक के रूप में भगवतशरण उपाध्याय का नाम सर्वोपरि है शुक्लोत्तर निबंध कारों में ललित निबंध विधा का विस्तार होने के साथ इतिहास को इतिहास के दायरे से निकालकर ऐतिहासिक धरोहर के आधार पर अपनी विषय वस्तु बनाकर निबंध लेखन में अपनी ख्याति स्थापित करने वाले भगवतशरण उपाध्याय हिंदी साहित्य जगत की अनमोल थाती  कहे जा सकते हैं |

 

 वास्तव में भगवतशरण उपाध्याय हिंदी साहित्य के  व्याख्या कार विचारक और निबंधकार हैं | भारत की प्राचीन विरासत इतिहास और पुरातात्विक चिंतन की गंहन्ता  उनके लेखन  का महत्वपूर्ण पक्ष है |  हुए महज साहित्य के ही नहीं, अपितु भारतीय संस्कृति के भी व्याख्या कार हैं और उनके इस क्षेत्र में दिए गए  अप्रतिम योगदान का प्रतिस्पर्धी रचनाकार नहीं हुआ है |

 

 भगवत शरण उपाध्याय का जन्म उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के अंतर्गत एक सभ्रांत  ब्राह्मण परिवार में हुआ था |  अपनी प्रारंभिक शिक्षा इन्होंने बलिया में ही पूरी की, यद्यपि उनके व्यक्तित्व एवं परिवेश के विषय में बहुत अधिक सामग्री का अभाव है, पर जिस प्रकार का लेखन उन्होंने किया है उससे यह अवश्य विदित हो जाता है कि उनकी अभिरुचि  प्रारंभ से ही इतिहास पुरातत्व एवं भारतीय संस्कृति में रही है और आगे  और आगे चलकर  वे  उसी के उन्नयन मैं अपनी विशेष पहचान और विशेष दृष्टि लेकर ही स्थापित हुए हैं |

 

 भगवतशरण उपाध्याय के भौगोलिक ग्रंथों की संख्या कम नहीं है  | लंबी सूची में से कुछ विशेष पुस्तकों का उल्लेख यहां किया जा रहा है

1 .  विमेन इन रिंग वेद –  1941

2 .  इंडिया इन कालिदास –  1947

3 .  नूरजहां –  1950

4 .  एशियन वर्ल्ड –  1954

5 .  भारतीय संस्कृति की कहानी –  1955

6 .  भारतीय नदियों की कहानी –  1957

7 .  कितना सुंदर देश हमारा –  1957

8 .  सागर की लहरों पर –  1959

9 .  टूटा आम –  1959

10 .  भारतीय इतिहास के आलोक स्तंभ  – भाग 1 –  1959

11 .  भारतीय इतिहास के आलोक स्तंभ   – भाग 2 –  1959

12 .  इतिहास और संस्कृति –  1960 

 

भगवतशरण उपाध्याय भारतीय संस्कृति के प्रति अपनी ऐतिहासिक दृष्टिकोण अपनाते थे जो सर्वथा मौलिक है इसका कारण उनका ऐतिहासिक ज्ञान रहा है |  लेकिन अपनी भारतीय संस्कृति के प्रति उनकी सोच पूर्णत:  वैज्ञानिक तथा मानवतावादी रहा है |  क्योंकि उनकी सभी कृतियों में उनका दृष्टिकोण अनवरत विद्यमान रहता है |  भारतीय संस्कृति के स्रोत के संदर्भ में  मान्यता रही है कि  भारतीय संस्कृति  अंतहीन विभिन्न जातियों इकाइयों के सुदीर्घ  संलयन का प्रतिफल है |

 

 भगवतशरण उपाध्याय के निबंधों में अधिकतर विवेचना का स्वरूप उपलब्ध होता है |  अतः  प्राय:  वे सरल सुबोध तथा सहज भाषा का प्रयोग करते हैं |  अपने निबंधों में उन्होंने हास्य व्यंग का  समावेश भी किया है  तथा अपने निबंधों में वे अपनी विनोदी प्रकृति का परिचय देते हैं |  भाषागत प्रयोग के स्तर पर उर्दू अंग्रेजी शब्दावली द्वारा अपनी भावुकता युक्त  विचार अभिव्यक्ति में सरलता ला देते हैं |

 

 भगवतशरण उपाध्याय के साहित्यिक व्यंग्य के रूप में इस पाठ का सारांश है मनुष्य मजदूर है –  एक मेहनतकश मजदूर सदियों से वह श्रम शक्ति की इकाई के रूप में मान्य  रहा है |  संसार की समस्त जातियों का विकास उसके कार्य के आधार पर ही हुआ है | सर्वप्रथम मनुष्य ने जहां आग पैदा की  श्रम वहां प्रधान रहा है |  इस बीच उसने कहा विश्राम नहीं लिया, उसने सुस्ताने का काम नहीं लिया |  अपने कंधों पर भूमंडल का भार उठाने वाले अटलस के साथ वह अनवरत यात्रासील रहा है | 

 

 इतिहास साक्षी है कि मनुष्य ने  निरंतर निर्माण कार्य किया है, क्योंकि मनुष्य गति हीन हो जाए तो जमाने का दौर बंद हो जाए, जमाना करवट लेना छोड़ दे| चाहे मिस्र की सभ्यता हो, चाहे रोम की चाहे संसार की कोई सभ्यता हो, उसके साथ मनुष्य की निर्माण कहानी अत्यंत गहरे जरी है |  मिस्र के मैदान हो या गीजा के पिरामिड लक्सर के मंदिर हो या चीन की दीवार हिंदुस्तान के मंदिर हो या ऑल सेंस लॉरेन की खाने  या फिर  न्यूयार्क  की बहू मंजिली  इमारतें  हो –  सभी साक्ष्य है मनुष्य के निर्माण कार्य की |  मनुष्य ने सदैव निर्माण का ही कार्य किया विध्वंस का नहीं |  यदि करना हुआ तो उसने पुनः निर्माण ही किया है, जिसे कभी उसे थकान नहीं हुई |

 

 मनुष्य की निर्वाण परिधि अत्यंत व्यापक और अनंत रही है | प्रखर प्रकृति वेग से प्रेरित होकर नदियों के ताजा बहाव को रोक देने का काम भी मनुष्य ने ही किया तो कहीं नम दलदल   भरी भूमि को ठोस जमीन में तब्दील कर उस पर फसलों की हरी-भरी क्यारियों से सजा कर उसे सौंदर्य से रंगने का काम भी मनुष्य ने ही किया |  अपनी श्रम  से उसने कहीं पहाड़ को काटकर रास्ते बनाए तो कहीं  चट्टाने  खोद कर खानों  को खोज निकाला  और उनमें से तांबे  सोना चांदी लोहे कोयले हीरे आदि निकालें |  इतना ही नहीं रोम का   कोलीसीएम  हो या इन थिस का अरीना, उनका निर्माण मनुष्य ने ही किया जिसके लिए कभी शेरों से लाना पड़ा तो कभी सारो  से |   यह  स्थिति  मेक्सिको मैं आज भी है मनुष्य ने ही कहीं जंगल काट कर गांव कस्बे और नगर बसाए और अपनी जमीन के साथ   बधे  रहकर   श्रमरत  रहा  किंतु अनवरत निर्माण कार्य मे लगा मनुष्य के लिए कुछ नहीं कर पाता, उसकी नियति मैं सर्वत्र  निराकार है |  उन्हें रहने के लिए घर भी नसीब नहीं है वह टाट फूस  से घिरी  दीवारों की आड़ में सपरिवार रहने के लिए विवश है | 

 

 संसार में ऐसी कौन सी चीज है जो मनुष्य के हाथों से न बनी हो, पर बावजूद इसके वह अपने हिस्से में कुछ भी नहीं पाता है, क्योंकि वह मजदूर है जिसके लिए भूखा नंगा  बेघर और  सुविधा हीन  रहना ही जैसे उसकी नियति हो |  मनुष्य की यह विशेषता विश्वव्यापी रही है |  खाने-पीने से लेकर सुविधा की तमाम सामग्रियों बनाने वाले मनुष्य का पेट कौन भरेगा ?  यह प्रश्न आज पूर्ववत  अनुत्तरित है | 

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *